hindisamay head


अ+ अ-

संस्मरण

मेरे पिता

बसंत त्रिपाठी


(एक प्रवासी उड़िया मजदूर की जीवन-गाथा)

 [मेरी अपने पिता से कभी नहीं बनी। हालाँकि वे मुझसे बहुत प्यार करते थे और मैं भी उनसे उतना ही प्यार करता था। न बनने का कारण उनके और मेरे बीच खड़ी कर्मकांड की दीवार थी, जिसके उस पार वे खड़े थे और इस पार मैं।

पिता मजदूर थे और मजदूर के अलावा खाली समय में कर्मकांडी पुरोहित थे। श्राद्ध, कथा, गृह-प्रवेश, विवाह, जनेऊ-संस्कार आदि के घोषित पुरोधा। पिता मुझे भी पुरोहित बनाना चाहते थे इसलिए बचपन में आधुनिक शिक्षा के अलावा गाहे-बगाहे कर्मकांडी शिक्षा भी देते रहते थे। बचपन में, पूजा-स्थलियों में, मैं ही उनका सहायक होता। पिता पूजा करते और मैं उनके पीछे, पूजा की सामग्री को समेटने के लिए तैयार।

पूजा के दौरान मैं दूसरे बच्चों के साथ पीछे बैठा रहता। उन्हीं क्षणों में मुझे पंडितों के प्रति एक स्वाभाविक हास्य का अहसास हुआ। पंडितों से कर्मकांड कराना उन परिवारों की मजबूरी थी, फिर भी उनके प्रति हास्य-व्यंग्य से वे चूकते न थे। पूजा के लिए इकट्ठे हुए बच्चों को अक्सर यह मालूम नहीं होता कि मैं उसी पंडित का बेटा हूँ, सो वे अपने चुटकुले मुझसे भी बाँटते और मैं चुप लगा जाता। लेकिन अंदर ही अंदर द्वेष से भर जाता। पिता के लिए इन हास्यात्मक टिप्पणियों का कोई अर्थ नहीं था। वे अपनी दक्षिणा और मिलने वाली सामग्री से मतलब रखते थे। धीरे-धीरे मेरे भीतर कर्मकांड और उसमें आकंठ तृप्त पिता के प्रति एक स्वाभाविक द्रोह पलने लगा।

बचपन में मैं भी पिता की तरह होना चाहता था, उन्हीं की तरह चप्पल चटकाना चाहता था, उन्हीं की तरह कुर्ता पहनना और टीका लगाना चाहता था, लेकिन किशोर वय के उफान के साथ मुझे इन सबसे चिढ़ सी होने लगी। मैं पिता से दूर होता गया, लगातार दूर होता गया। जिंदगी की अनेक घटनाओं ने इसमें सहायक की भूमिका अदा की।

पिता की जिंदगी के अंतिम पाँच महीने... पिता कैंसर से पीड़ित होकर अस्पताल पहुँच गए। उन्हें मालूम ही नहीं था कि वे कुछ ही महीनों के मेहमान हैं। तब मैं रात में पिता के पास रुकता था और उनके दर्द को भुलाए रखने के लिए उनकी गुजरी जिंदगी की बातें किया करता था। मेरा उद्देश्य अपने पिता को आमूल-चूल जानना भी था। पिता ने जब अपने अतीत के पन्नों को उलटकर मुझे सुनाना शुरू किया तो मैं हतप्रभ रह गया। अपनी पैंतीस बरस की जिंदगी में मैंने पिता को कितना कम जाना था!

पिता की यह जीवन-गाथा, मृत्यु-शैय्या में पड़े पिता द्वारा अपने अतीत के पन्नों से गुजरते हुए अपने बेटे को दी गई जानकारियों के आधार पर है। अपने अंतिम दिनों मे पिता ज्यादा बोल नहीं पाते थे, हाँफ जाते थे, लेकिन फिर भी बोलना उन्हें अच्छा लगता। उन दिनों उनके पास यही एक सुकून था। इसके अलावा केवल पीड़ा और यातना का खौफनाक संसार था।

पिता की स्मृति गजब की थी। घटनाएँ उन्हें तारीख के साथ याद थी, लेकिन फिर भी बीमारी के कारण स्मृतियाँ कई बार चूक जाती थीं। विशेषकर व्यक्ति और जगहों के नामों में वे कई बार गलती कर जाते। इसलिए पाठक जगह के नामों को भौगोलिक स्थितियों के आधार पर न देखें। पिता पर विस्मृति सबसे अधिक हावी हुई कोलकाता में जूट मिल में काम के तरीकों के बारे में बताते हुए। वे अक्सर विभाग और मशीनों के नाम भूल जाते थे। हालाँकि वास्तविक नाम ढूँढ़ना बहुत मुश्किल न था, लेकिन मैंने वे नाम वैसे ही रखे, जैसे उनकी स्मृति और जुबान में थे। शायद उस समय मजदूरों की भाषा में मशीनों और जगह के नामों को ऐसे ही याद किया जाता हो!

मैं अस्पताल और घर की उन उदास रातों में पिता के साथ उनके अतीत में जाता, फिर उनके अतीत से अपने वर्तमान में लौटकर अप्टन सिंक्लेयर का उपन्यास ' जंगल' पढ़ता। मुझे कई बार लगता कि जंगल का यूर्गीस भेस बदलकर पिता में बदल गया है।

पिता को लगातार जानते हुए मैं पिता से प्रेम करने लगा, लेकिन उनसे प्रेम के लिए मुझे केवल पाँच महीने मिले। हालाँकि इनके कर्मकांड से मैं अब भी चिढ़ता हूँ। मुझे इस बात का आश्चर्यजनक एहसास हुआ कि ईश्वर पर आस्था के बावजूद पिता के लिए ज्योतिष और कर्मकांड केवल आर्थिक सुदृढ़ता का एक जरिया था। लेकिन वे उसमें इतना उलझ गए थे कि उसी के अनुरूप अपना जीवन जीने लगे।

पिता द्वारा खोले गए उनके जीवन के सूत्रों को मैं पाठकों के सामने रख रहा हूँ, यह जानते हुए कि बीसवीं शताब्दी के मध्य में किसी भी प्रवासी मजदूर का जीवन-संघर्ष इससे भिन्न नहीं होगा।]


उड़ीसा का गंजाम जिला... छोटी-छोटी पहाड़ियों और तालाबों से भरा एक खूबसूरत इलाका... पूरे इलाके में फैले खजूर और ताड़ के वृक्ष शाम की खूबसूरती को एकाएक बढ़ा देते हैं। पहाड़ियों पर ठहरे हुए बड़े-बड़े काले पत्थर उड़ीसा की सहनशीलता के सच्चे प्रतीक हैं। पत्थरों को देखते हुए ऐसा लगता है कि अभी ढुलकते हुए तेजी से नीचे आएँगे और तराई में बसे गाँवों को कुचल डालेंगे, लेकिन गाँव में रहने वालों को इन पत्थरों पर यकीन है। शहरों और कस्बों के अलावा छोटे-बड़े गाँवों के अधिकांश घरों के छप्पर धान के पैरा से बने हैं। शाम होते ही घरों से मछलियों की गंध उठने लगती है, बिल्कुल स्याह जल में उठते बुलबुलों की तरह... और मछलियाँ भी रोहू, कतला, बाम, सेऊल, कोऊ, बालिया, केरांडी, झींगा और समुद्री और सूखी मछलियों का तो अंबार...!

समुद्री किनारों को छूता गंजाम, अपनी समृद्धि के लिए तो नहीं, लेकिन अपनी अक्खड़ता और साफगोई के लिए ख्यात है। आंध्र से लगा होने के कारण पूरे इलाके में तेलुगु संस्कृति और भाषी लोग आसानी से मिल जाएँगे। यह इलाका औद्योगिकीकरण की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है।

बंगाल से सांस्कृतिक और आर्थिक आदान-प्रदान के कारण कटक और भुवनेश्वर को, तथा धार्मिक नगरी होने के कारण पुरी को विकास के जो स्वाद मिले, गंजाम का ग्रामीण इलाका आज तक उससे महरूम ही है। इसलिए रोजी-रोटी के लिए उड़िया मजदूरों का पलायन इस इलाके की एक त्रासद सच्चाई है। पहले कोलकाता के लिए और अब सूरत और अहमदाबाद के लिए, उड़िया मजदूरों को जत्थों में जाते हुए आसानी से देखा जा सकता है।

ये मजदूर उन इलाकों में संघर्षपूर्ण जीवन-यापन करते हुए जैसे-तैसे अपना पेट पालते हैं और उड़िया-पिछड़ेपन की स्वीकृत व्यंग्य-दृष्टियों का सामना करते हुए, अपने पैतृक इलाकों में बसने का स्वप्न पाले जीवन गुजार देते हैं। यह कथा एक ऐसे ही उड़िया मजदूर - मेरे पिता की है।

मेरे पिता - गणेश त्रिपाठी - अपने माता-पिता की पाँचवीं संतान थे और 18 अक्टूबर 1930 को एक गंजमिया ब्राह्मण के घर पैदा हुए; एक औसत आकार के गाँव जरड़ में। जरड़ आज एक बड़ा गाँव है, जिसमें बारह सौ के लगभग छोटे-बड़े घर हैं। गाँव के तीनों ओर तीन तालाब हैं और एक तालाब में थोड़ी ही दूर पर एक झील।

अभी कुछ साल पहले तक पूरा इलाका भालुओं के खौफ के कारण, अँधेरा होते ही अपने आप में सिमट जाता था। आवाजाही बिल्कुल बंद हो जाती थी। लगभग सभी बुजुर्ग ग्रामीणों के पास भालुओं से जुड़े एकाधिक किस्से उपलब्ध हैं, कुछ सच्चे, कुछ झूठे। गंजमिया लोगों की अक्खड़ता में मुहावरेदार किस्से की बड़ी लच्छेदार भाषा होती है। तर्क करते हुए मुहावरे की ऐसी पटकनी देने के अभ्यस्त होते हैं कि कटक, पुरी के संभ्रांत कहे जाने वाले लोग इनसे थोड़ा बचकर ही रहते हैं। तो इसी गंजाम में 18 अक्टूबर को पिता जन्मे, ठीक उसी साल, जिस साल गांधीजी ने अपना सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया।

गाँव जरड़ में शूद्रों की संख्या बहुत है। शूद्र श्रमिक हैं, लेकिन ब्राह्मणों में अपने ज्ञानी होने का दंभ ज्यादा नहीं हैं। हाँ, लेकिन जन्मजात श्रेष्ठता का संशयरहित दंभ आज भी है। इन ब्राह्मणों की पुरोहिती कई गाँवों में चलती है।

1930 में मेरे दादा की भी पुरोहिती चलती थी। उनके पास यजमानी के दो गाँव थे, लेकिन गुजर-बसर लायक ही आवक थी। इसलिए उनके तीनों बेटों की नियति थी कि किशोर होते-होते अपने पेट का इंतजाम खुद करें। वैसे भी देश की हवा कुछ ऐसी बह रही थी कि यजमानी की मुफ्तखोरी तरुणों को रास नहीं आ रही थी।

पिता अभी तेरह के थे और गाँव के स्कूल में छठी कक्षा में थे। मास्टर थे नीलकंठ पटनायक। गँवई भाषा में छठी कक्षा का अर्थ है छह साल की पढ़ाई। न फेल होने का डर, न पास होने का प्रमाण पत्र। तो पिता इस अंदाज में छठी कक्षा का महत्वपूर्ण ज्ञान हासिल कर रहे थे!

छठी कक्षा में पिता के लिए चौदह पैसे की एक किताब खरीदी गई - पाठ-संग्रह। पिता ने उसके सारे पाठ कुछ ही दिनों में याद कर लिए, सो किताब बेच दी गई। यह पुण्य कार्य उनके मास्टर के हाथों दस पैसे के ऐवज में संपन्न हुआ। मेरे दादा का कहना था कि किताब उन्होंने खरीदी थी, सो दस पैसे उन्हें मिलने चाहिए। लेकिन मास्टर का मानना था कि छात्रों और उनकी शैक्षणिक संपत्ति पर उनका और केवल उनका ही अधिकार है।

दादा गाँव में अपने गुस्से के लिए ख्यात थे, लेकिन मास्टर ठहरे बाहर के आदमी, वे दादा का धौंस क्योंकर मानते? दोनों में खूब झगड़ा हुआ और यह स्वाभाविक भी था। दादा के पास यजमानी के दो गाँव थे, जहाँ के लिए वे सुबह से ही, नहा-धोकर निकल जाते थे। श्राद्ध, यज्ञ, पंचांग, चंडी पाठ, कथा बाँचने जैसे कर्मकांडी-कृत्य निपटाने के बाद जब वे शाम को लौटते तो उनके गमछे में सब्जी और चावल बंधे होते। दादा ने इन दोनों गाँवों की पुरोहिती सशर्त किराए पर ली थी। शर्त यह थी कि नकद दक्षिणा पर गाँव के वास्तविक पुरोहितों का अधिकार होगा और शेष सामग्री का बराबर बँटवारा होगा। जरड़ गाँव की अधिकांश यजमानी के बँटवारे का भी यही सूत्र था। यह गाँव सारस्वत ब्राह्मणों की यजमानी के अंतर्गत आता था, इसलिए श्राद्ध एवं अन्य धार्मिक-कर्मकांडी कृत्य में मिलने वाली सामग्री का सारस्वतों और कान्यकुब्जों में बँटवारा होता था। इस बँटवारे के पश्चात वंश के भीतर पुनः बँटवारा होता था। इस तरह वास्तविक आमदनी बहुत सीमित थी। काश्तकारी के लिए जमीन इतनी थोड़ी थी कि किसी तरह केवल गुजारे लायक अन्न ही उत्पन्न हो पाता था। इसलिए नकद पैसे दादा के लिए बहुत महत्व रखते थे। खैर।

दादा और मास्टर नीलकंठ पटनायक का झगड़ा, जो शुरू हुआ तो बढ़ता ही गया। झगड़ा जब बहुत बढ़ गया तो गाँव में पुलिस आई और किसी तरह बिना पैसों के ही निपटारा हुआ। लेकिन पूरी घटना का परिणाम यह हुआ कि पिता स्कूल से निकाल लिए गए और मास्टर ने अपना तबादला करवा लिया।

अब समस्या यह थी कि पिता आगे क्या करेंगे? बहुत सोचने-विचारने के बाद एक विकल्प खोजा गया। पिता की सबसे बड़ी बहन, गंजाम के प्रसिद्ध देवी मंदिर तरा-तारिणी के एक प्रसिद्ध पुरोहित के यहाँ ब्याही गई थी। तरा-तारिणी में निर्धन ब्राह्मण छात्रों के हितार्थ एक आश्रम था - यज्ञ-मंडप। वहाँ के छात्र ठेठ सामंती कायदों का पालन करते हुए रहते और कर्मकांड आदि का अध्ययन करते। तीन साल की पढ़ाई पूरी होने के बाद छात्र परीक्षा में बैठने के पात्र होते और पास होने पर जो प्रमाण-पत्र मिलता वह सातवीं की बोर्ड परीक्षा के समकक्ष माना जाता था। फूफा के पुरोहिती प्रभाव से पिता को आश्रम में दाखिला मिल गया।

आश्रम का नियम था - सुबह-सुबह उठकर नहा-धोकर निर्धारित कक्षाओं में जाना और छड़ी और ज्ञान के पुरोधाओं का बिला नागा दोनों प्रसाद ग्रहण करना। यूनिफार्म के नाम पर एक गेरुआ गमछा और एक गेरुआ उत्तरीय। आश्रम का एक नियम और था - प्रत्येक मंगलवार को आश्रम के शिक्षक और छात्र पहाड़ी में स्थित देवी के मंदिर जाते और आश्रम की व्यवस्था के लिए भीख, माफ कीजिए, भिक्षा माँगते। भीख निम्न जाति या वर्ग के लोग माँगते हैं। सवर्णों या शासक जातियों के लिए यही भिक्षा हो जाती है। पिता ने तीन साल इसी सुग्गापाठी ज्ञान और भिक्षा के अर्जन में बिताए।

1946 का फरवरी का महिना... ठंड अपने उतार पर थी। आश्रम की परीक्षाओं के फार्म भरे जा चुके थे और तीन महीने बाद पिता मिडिल पास हो जाने वाले थे।

इसी महीने के एक दिन के शाम सात बजे का आश्रम... पिता के ही कुल के एक भाई भीम कहीं से बीड़ी का एक कट्टा उठा लाए और अपने साथियों को दिखाया। छात्रों के मन आश्रम के कठोर नियंत्रण से पल भर की मुक्ति के लिए मचल उठे। सभी चुपचाप आश्रम के पिछवाड़े गए और बीड़ी सुलगा कर लंबे-लंबे कश खींचने लगे।

बीड़ियों के कश खींचते हुए छात्रों का आनंद चरम पर था। धुआँ उड़ाते हुए वे पहाड़ पर जैसे एक बादल के निर्माण में लीन थे। उनके लिए यह ब्रह्मानंद से कम का आनंद नहीं था। वे अपने आनंद में डूबे हुए थे और दुर्भाग्य उनकी ओर चला आ रहा था।

आश्रम का एक शिक्षक लघुशंका निवारण के लिए आश्रम के पिछवाड़े गया और देखा कि कुछ सुलगती चिंगारियाँ अँधेरे में इधर-उधर चल रही हैं। सारा माजरा समझते उसे देर न लगी। वो चीते की तरह दबे पाँव वहाँ पहुँचा और शेर की तरह दहाड़ा।

ब्रह्मानंद में लीन छात्रों के हाथ-पाँव फूल गए। जिसे जहाँ राह मिली, भागे। पिता घबराहट में मास्टर की ओर ही भागे और अंधे और बटेर के मुहावरे को सही साबित करते हुए पकड़े गए। उन्हें घसीट कर आश्रम के बीच लाया गया और शुरू हुआ पिटाई का दौर। पहले लात-घूसे से पिटाई हुई और जब गुरुवर थक गए तो कुर्सी के हत्थे से पीटना शुरू किया। पिता चिल्लाते रहे, गिड़गिड़ाते और रोते रहे, उनके नाक, मुँह, कोहनी और घुटनों से खून टपकने लगा। गुरुवर की आत्मा जब तृप्त हो गई, तब वे अपने शिष्य को वहीं छोड़कर अपने कक्ष में चले गए, क्योंकि दूसरे दिन उन्हें छात्रों को ईश्वर प्राप्त करने के कर्मकांडी गुर सिखाने थे और उसके लिए नींद आवश्यक थी!

पिता दर्द और अपमान से कराहते हुए रात भर वहीं ठंड में पड़े रहे। उनके हाथ-पैर सूज गए थे। अंततः सुबह-सुबह उन्होंने निर्णय ले लिया कि अब आश्रम में नहीं रहेंगे। और बिल्कुल सुबह, मुँह-अँधेरे, पिता ने हमेशा के लिए आश्रम छोड़ दिया। उनके इस निर्णय की तह में उनके बड़े भाई दाशरथी त्रिपाठी आदर्श की तरह उपस्थित थे, जिन्होंने दो वर्ष पहले ही घर छोड़ दिया था और कोलकाता में कमा-खा रहे थे।

मुँह-अँधेरे पिता जख्म से भरा शरीर और अपमान भरा दिल ले कर सीधे अपनी बड़ी बहन के यहाँ पहुँचे। वहाँ इत्मीनान से भोजन किया। इत्मीनान का यह दिखावा जरूरी था, क्योंकि बड़ी बहन के माध्यम से ही पिता को आश्रम में दाखिला मिला था और रात वाली घटना का जिक्र करके पिता उन्हें अपने अपमान में शामिल नहीं करना चाहते थे, उन्हें अपराध-बोध से भरना नहीं चाहते थे। अपने जख्मों पर उन्होंने बहानों की चादर डाल दी।

सुबह के भोजन के बाद वे पंद्रह किलोमीटर दूर अपने गाँव के लिए पैदल ही निकल पड़े। दोपहर लगभग एक बजे वे गाँव पहुँचे। दादा, घर में नहीं थे, केवल दादी थी। पिता के इस तरह अचानक आ जाने से वह भौंचक्की थी। शरीर में जख्मों के निशान ने उन्हें चिंतातुर बना दिया था। जख्मों के बारे में पूछे जाने पर पिता ने गिर पड़ने का बहाना बना दिया। उनका अपमानित मन मजदूर बन चुका था। पुरोहिती के खोखले दर्प को उसने चीर दिया था।

गाँव पहुँचकर उस सोलह वर्षीय किशोर ने अपनी माँ के हाथों से वात्सल्य भरा भोजन किया और बिना बताए अपने निर्णय-पथ की ओर निकल पड़ा। कहा यही, कि अभी आश्रम जाना जरूरी है, केवल मिलने के लिए चला आया था।

उस दिन आश्रम के रास्ते के एक गाँव में एक निकट संबँधी की ओर से विवाह में शामिल होने का न्योता था। दादा अभी तक लौटे नहीं थे, सो दादी ने कहा कि पिता आश्रम से पहले विवाह समारोह में शामिल होएँ। उन्हें व्यवहार के रूप में संबँधी को देने के लिए एक रुपये भी मिला। चलते हुए पिता ने ताक में रखे हुए बीस रुपये भी उठा लिए जो किसी धनी यजमान द्वारा एक महीने की घी-बाती के लिए दिए गए थे।

शाम को दादा लौटे और बीस रुपये निर्धारित स्थल पर न पाकर बौखला गए। पूछने पर पता चला कि पिता आए थे। स्थिति भाँपते उन्हें देर न लगी। पिता को घर से निकले अभी बहुत देर न हुई थी, और विवाह जिस गाँव में हो रहा था, वह भी बहुत दूर नहीं था। उन्होंने अपने छोटे बेटे को संबँधी के गाँव की ओर दौड़ाया।

छोटा भाई जल्द ही विवाह समारोह में पहुँच गया। दोनों भाइयों के बीच दो साल का अंतर था, लेकिन छोटा भाई यहाँ अपने पिता का प्रतिनिधित्व कर रहा था, सो उसका रुतबा ऊँचा था। उसने अपने बड़े भाई से रुपयों के संबंध में पूछताछ की तो बड़े भाई के पास कोई विकल्प नहीं रह गया। उसने अपनी अंटी से बीस रुपये निकाल कर चुपचाप अपने छोटे भाई की हथेली पर रख दिया और अपने कोलकाता-प्रवास का निर्णय भी सुना दिया।

छोटा भाई परेशान हो गया। उसे उम्मीद नहीं थी कि यहाँ ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा। उसकी उम्र कुल चौदह साल थी। चौदह साल का छोटा भाई, सोलह साल के बड़े भाई को जितना समझा सकता है, उसने उतना समझाया, लेकिन बड़ा भाई टस-से-मस न हुआ। निर्णय से फेरना उसके लिए अब संभव नहीं था। दोनों भाइयों ने उसी गाँव में रात बिताई और दूसरे दिन बड़ा भाई, यानी मेरे पिता, खाली हाथ और नंगे पाँव, एक छह हाथ का गमछा पहने और एक कांधे पर डाले कोलकाता के लिए निकल पड़ा। माँ से मिले एक रुपये को वह पहले ही व्यवहार के रूप में दे चुका था।

पिता यह पता कर चुके थे कि कोलकाता पैदल नहीं पहुँचा जा सकता और निकटस्थ रेलवे स्टेशन हूमा से कोलकाता के लिए सवारी गाड़ी मिलती है। वे पैदल-पैदल हूमा पहुँचे और आतुरता से गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगे।

प्लेटफार्म अपने जर-जमीन से पलायन करने वाले मुसाफिरों से भरा था। अजनबी जगहों में पहुँचकर वे जल्द ही अपनी पहचान खो देने वाले थे। पिता भी एक समझौते की तरह फरवरी 1946 में उस भीड़ में शामिल हो गए।

आखिरकार दोपहर बारह बजे के लगभग गाड़ी आई, खचाखच भरी हुई। मुसाफिरों का रेला डिब्बों की ओर टूट पड़ा। सैलाब में बहते हुए किसी क्षुद्र वस्तु की तरह पिता भी एक डिब्बे के भीतर पहुँच गए। पूरा डिब्बा गंदगी, घुटन और कोयले के चूरे से भरा था। गाँव की अनगढ़ स्वच्छता की कल्पना भी यहाँ बेमानी थी! एक तरफ अपमान से भरी हुई स्वच्छता थी और दूसरी तरफ अनिश्चित लेकिन संभावनाओं से भरा हुआ भविष्य! बगैर किसी द्वंद्व के पिता ने डिब्बे को आत्मसात कर लिया और अपनी पुरानी पहचान खिड़की के बाहर फेंक दिया!

गाड़ी हिलती-डुलती, रुकती-रुकाती, मुसाफिरों को भरती-खाली करती आगे बढ़ रही थी और पिता रुआँसे-से, लेकिन अडिग, अपने अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहे थे।

ट्रेन के डिब्बे में एक संभ्रात-सा दिखने वाला आदमी बड़े गौर से पिता का चेहरा अपनी नजरों से टटोल रहा था। उसकी अनुभवी आँखों में बार-बार एक शातिर चमक उठती थी। वह पिता से सहानुभूतिपूर्ण संवाद बनाने की कोशिश कर रहा था। उसने पूछा -

बेटा, तुम कहाँ जा रहे हो?

कलकत्ता, शून्य आँखों से देखते हुए पिता ने अपना अडिग निर्णय सुनाया।

पहले कभी कलकत्ता गए हो? उसने प्रश्न किया।

किशोर ने इनकार में सिर हिला दिया और साथ ही जोड़ा - मैं काम करने के लिए कलकत्ता जा रहा हूँ और मेरा भाई भी वहीं रहता है।

कौन जात हो?

बांभन हूँ!

यह तो मैं देखते ही जान गया था। घर से भाग कर जा रहे हो?

किशोर ने सिर झुका लिया। संभ्रांत आदमी को अब जाकर उसकी नब्ज मिली। उसने कहा - बेटा! कलकत्ता बहुत बड़ा शहर है। तुम्हें देखते हुए ही लग रहा है कि पहली बार वहाँ जा रहे हो और शायद टिकट भी नहीं लिया है। क्यों नहीं पहले कहीं और थोड़ा बहुत कमा लेते, ताकि कलकत्ता सुरक्षित पहुँच सको! वैसे भी उस बड़े शहर तक फकीरों का पहुँचना बहुत मुश्किल है।

लेकिन मुझे काम देगा कौन? मुझे कोई काम नहीं आता। यह बात किशोर ने शर्म से नहीं साफगोई से कही थी।

मेरे पास एक काम है, चाहो तो कर सकते हो।

किशोर ने आशंकित नजरों से देखा।

देखो बेटा, काम बहुत आसान है। अभी कटक आने वाला है। वहाँ मेरा बेटा और दामाद रहते हैं। दोनों का सरकारी काम है, लेकिन काम का बोझ इतना ज्यादा है कि खाना बनाने की भी फुर्सत नहीं मिलती। तुम उनके साथ रहकर उनके लिए खाना बना सकते हो। बदले में दोनों बखत का खाना और चार रुपये महीने के अलग मिलेंगे।

प्रस्ताव बुरा न था लेकिन समस्या खाना बनाने की थी। किशोर ने कहा -

मुझे खाना बनाना नहीं आता।

अरे, वो कौन-सा मुश्किल काम है? मैं दो दिन में सिखा दूँगा। बोलो, तैयार हो?

गाड़ी धीरे हो रही थी, स्टेशन आ रहा था। लड़का उतरने के लिए तैयार हो रहा था। आदमी ने पूछा - तुम्हारा नाम क्या है?

गणेश।

आदमी की आँखें चमक रही थी। लड़का उसके पीछे मंत्रमुग्ध-सा चलने लगा।

यह पिता का पहला रोजगार था। इस रोजगार में दो वक्त का खाना महत्वपूर्ण नहीं था। वह तो किसी तरह गाँव में भी मिल सकता था। महत्वपूर्ण था महीने भर काम करने के बाद मिलने वाले चार रुपये। ऐसे चार रुपये, जिस पर किसी का अधिकार नहीं होगा! खर्च करने में कोई रोक-टोक नहीं होगी!

बेरोकटोक खर्च के रोमांच ने पिता को इन तकलीफों को सहना सिखाया, जो इस रोजगार से हासिल हुई थी।

सुबह मुँह-अँधेरे उठकर रसोई घर साफ करना, चूल्हा लीपना, रात के जूठे बर्तन साफ करना, फिर सूखी लकड़ी डालकर चूल्हा जलाना और फिर खाना बनाना - भात, दाल, तरकारी... पिता घर के राजा बेटा नहीं थे लेकिन खाना बनाने की नौबत कभी नहीं आई थी। इसलिए कभी भात गीला हो जाता तो कभी तरकारी में नमक ज्यादा... दाल कभी गाढ़ी तो कभी पतली और फीकी। संभ्रांत आदमी ने दो दिन रहकर खाना बनाने की तकरीब सिखा दी और अपने गाँव लौट गया। आरंभ में दोनों जीजा-साले ने सहनशीलता से काम लिया लेकिन फिर डाँटने और कभी-कभार थप्पड़ रसीद करना वे अपना कर्तव्य समझने लगे।

सुबह उठकर खाना बनाने से लेकर दस बजे उनके खाकर जाने तक पिता का भय बना रहता। जाने से पहले वे पिता को घर के भीतर बंद कर बाहर से ताला लगाकर चले जाते। शाम तक पिता सड़क की आवाजाही को खिड़की से निहारते रहते। शाम को दोनों थके हारे आते और अपनी झल्लाहट और थकान पिता पर उड़ेल देते। पिता चुपचाप उन्हें सुनते और सहते थे, क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था, फिर माह के अंत में चार रुपये भी तो मिलने वाले थे!

धीरे-धीरे माह बीतने लगा। तकलीफों से भरा समय जल्दी नहीं बीतता, वह शरीर के पुर्जे-पुर्जे को अपनी उपस्थिति से भर देता है, मन को हताश कर देता है, सपनों की जमीन बंजर बना देता है, वर्तमान को गीली सुलगती लकड़ी पर तिल-तिल जलाकर धीरे से सरकता है।

पिता को घर से भागे एक महीना बीत चुका था लेकिन चार रुपये अभी मिले नहीं थे। उन्होंने एकाधिक बार अपने वेतन की माँग की तो कहा गया कि वह पैसे का आखिर करेगा क्या? दिन भर तो घर में ही रहता है। यदि पैसे इधर-उधर रख दिए तो आफत अलग! बेहतर होगा कि वह कलकत्ता जाने से पहले ही पैसे ले।

पिता समझ गए कि उन्हें टाला जा रहा है। दूसरा महीना भी बीत गया। पैसे नहीं मिले। वेतन की माँग को लेकर जो शुरुआती समझ थी उसने अब घुड़की का रूप ले लिया था। दो महीने अवैतनिक बीतते-बीतते पिता को यकीन हो गया कि वे बुरी तरह फँस चुके हैं और मुक्ति का कोई रास्ता नहीं है।

पिता का मन मुक्ति के लिए छटपटाने लगा। इसी छटपटाहट में उन्होंने अपने बड़े भाई दाशरथी को पत्र लिखा, जिसमें इन दो महीनों की दास्तान थी, और बड़ी होशियारी से पत्र-पेटी में डाल आए। पत्र में अपना पता लिखना वे नहीं भूले थे।

यहाँ जरूरी है कि आप पिता के बड़े भाई दाशरथी त्रिपाठी को जान लें।

दाशरथी, पिता से दो साल बड़े थे और अपनी आक्रामकता के लिए ख्यात थे। उनके लिए जीवन विवशता की एक सीधी लकीर नहीं था इसलिए उन्होंने जी भर कर वैकल्पिक रास्तों को तलाशा। अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कई-कई योजनाएँ बनाई और जरूरत पड़ने पर लड़ने-भिड़ने से भी बाज नहीं आए। स्थितियों को जितना विवश होकर पिता जीते थे, ताऊजी उन्हें उतनी ही आक्रामकता के साथ जीते थे। पिता को विश्वास था कि उनका बड़ा भाई उन्हें इस बँधुआ मजदूरी की कारा से मुक्त कराने जरूर आएगा।

और पिता का विश्वास व्यर्थ नहीं गया।

पत्र लिखने के लगभग बीस दिन बाद एक सुबह ताऊजी वहाँ पहुँच गए। आते ही उन्होंने हड़कंप मचा दिया। सबसे पहले तो उन्होंने अपने छोटे भाई को आजाद किया फिर तीन महीने के वेतन की माँग की। ताऊजी आक्रामक थे लेकिन मजदूर थे। वे दोनों, जीजा-साला, सरकारी विभाग में काम करते थे और सरकारी दाँव-पेंच बखूबी जानते थे। भला अठारह वर्षीय फटीचर युवक का उन पर क्या असर होता? ताऊजी चिल्लाते रहे। आखिरकार कोर्ट-कचहरी के मार्फत बारह रुपये वसूलने की धमकी देकर और अपने छोटे भाई को आजाद करवाकर वे कटक स्टेशन पहुँचे।

ताऊजी उन्हें कोलकाता ले जाने के लिए आए थे और पिता ने भी कोलकाता जाने के लिए ही घर छोड़ा था, सो गंतव्य तक पहुँचना तो अब तय था। समस्या केवल पैसों की थी। ताऊजी बिल्कुल खाली हाथ थे, उनके पास एक पैसा भी न था। दरअसल उन्हें विश्वास था कि वे पिता के बारह रुपये वसूल लेंगे, उनकी आक्रामकता का एक कारण यह भी था! खैर, पैसे न उनके पास थे, न पिता के पास, लेकिन कोलकाता तो पहुँचना ही था। दोनों भाई एक पैसेन्जर गाड़ी में सवार हो गए।

दो साल से बाहर रहने के कारण ताऊजी दुनिया के गुर सीख चुके थे। कम-से-कम अपने आपको आसन्न संकट से बचाने की पर्याप्त तरकीबें उनके पास थीं। इन्हीं तरकीबों की बदौलत वे बिना टिकट टी.टी.ई. को चमका देते हुए कोलकाता से कटक पहुँच गए थे। लेकिन इस बार स्थितियाँ थोड़ी भिन्न थी। उनके साथ एक ऐसा नौजवान था जो दुनियादारी नहीं जानता था और दुनियावी अर्थ में चालाक भी नहीं था। डिब्बे में टी.टी.ई. के घुसने पर फुर्ती से कूदकर सुरक्षित डिब्बे में पहुँचने की कला में ताऊजी पारंगत थे, लेकिन पिता, वे तो दूसरी बार रेलगाड़ी में बैठ रहे थे। उन्हें तो टी.टी.ई. के पकड़ने का अर्थ भी ठीक-ठीक मालूम नहीं था।

बचने-बचाने की कई कोशिशों के बावजूद अंततः दोनों भाई धर लिए गए। रेलवे अधिकारियों-टिकट चेकरों को ऐसे नवयुवकों से पैसे मिलने की उम्मीद बिल्कुल नहीं होती थी, जेल में डालकर सरकारी रोटी तुड़वाने का भी कोई अर्थ नहीं था। ऐसे युवकों के साथ उस समय एक ही सुलूक किया जाता था - जहाँ गाड़ी रुकी, वहीं उतार दो - चाहे वह स्टेशन हो अथवा जंगल। रेलवे अधिकारियों ने इस बार भी वही सुलूक किया। धानमंडल स्टेशन से आठ किलोमीटर पहले जब लाइन क्लीयर न होने की वजह से गाड़ी रुकी तो दोनों भाई उतार दिए गए। गाड़ी उन्हें अलविदा कहकर आगे बढ़ गई।

जीवन और मरण जहाँ आध्यात्मिक तर्क-वितर्क की ऐय्याशी नहीं होती, वहाँ संघर्ष के अस्वीकार की गुंजाइश भी नहीं होती, टूटने या हताश होने का अवकाश भी नहीं होता। गाड़ी से उतार दिए जाने के बाद दोनों युवकों के पास एक ही रास्ता बचा था - किसी भी तरह सूरज ढलने से पूर्व उस घने जंगल को चीरते हुए निकटस्थ स्टेशन धानमंडल तक पहुँच जाएँ! सुबह की कहासुनी ने पिता को भोजन करने नहीं दिया था। ताऊजी भी खाली पेट थे। लेकिन इन बातों का फिलहाल कोई अर्थ नहीं था। उन्हें स्टेशन पहुँचना था और वह भी जल्दी। दोनों अपने अशक्त कदमों को घसीटते हुए पटरी के किनारे-किनारे आगे बढ़ने लगे।

भूख उन पर हावी होने लगी थी। रफ्तार कम हो रही थी। इसलिए उनकी भूखी आँखों ने आस-पास का जायजा लेना शुरू कर दिया कि हीं कोई खाने लायक चीज - कोई कंदमूल या जंगली फल-फूल मिल जाए!

वह मई का जंगल था और खौफनाक तरीके से उदास पड़ा था। पेड़ गर्मी से झुलस गए थे मानों अपने पसीने से तर-ब-तर कपड़े उतार कर राहत पाने की कोशिश कर रहे हों! पगडंडियाँ धूसर और धूल उड़ाती हुई उनकी आँखों को धूल-कणों से भरती जा रही थी और वे घिसटते हुए चल रहे थे।

इस तरह चलते हुए उन दोनों ने लगभग पाँच किलोमीटर का रास्ता तय कर लिया कि उन्हें एक आम का पेड़ दिखा। चमत्कार की तरह उसकी ऊँचाई पर दो कच्चे आम चमक रहे थे... बिल्कुल हरे... धूप ने उन्हें दो हरी बत्तियों में बदल दिया था। वे दो हरी बत्तियाँ दरअसल उन दोनों युवकों की यात्रा के लिए ग्रीन सिग्नल थीं। भूख के आक्रमण ने दोनों के दिमाग में झुरझुरी पैदा कर दी थी इसलिए दो आमों का दिख जाना उनके लिए भगवान के दिख जाने से कम नहीं था।

पिता बंदर की फुर्ती दिखाते हुए पेड़ पर चढ़ गए और दोनों आम तोड़ लाए। गमछे से पोंछ-पाछ कर दोनों ने जैसे ही आम को दाँतों से काटा, उनके शरीर में एक तरंग-सी दौड़ गई! आम इतना खट्टा था कि मृत्यु तक भी पिता जब उसका स्वाद याद करते तो उनके दाँतों में खट्टेपन की फुरफुरी दौड़ जाती थी।

ताऊजी ने गुस्से में उस आम को जंगल में बिछी सूखी पत्तियों पर उछाल दिया। लेकिन पिता अपना आम पूरा खा गए, यहाँ तक कि उन्होंने उछाले गए आम को भी पोंछ कर गमछे के एक सिरे में बांध लिया।

उड़िया ब्राह्मण समाज में जनेऊ धारण करने के बाद बालक को, माता, पिता, बड़ी हो चुकी बहन या जनेऊ धारण कर चुके भाई का जूठा खाने की अनुमति नहीं है। लेकिन पिता के लिए इन बातों का फिलहाल कोई अर्थ नहीं था। उन्होंने ताऊजी द्वारा फेंका हुआ आम उठा लिया था।

खट्टे आम से उन्हें राहत ही मिली होगी, यह कहना तो कठिन है लेकिन उनके भीतर उम्मीद की एक किरण जरूर जाग गई थी। इसी किरण का एक छोर पकड़कर वे तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ने लगे। आखिरकार उनकी तेजी रंग लाई और दोनों भाई शाम ढलते-ढलते धानमंडल पहुँच गए। स्टेशन के बाहर लगे हैंडपंप से दोनों ने भरपेट पानी पिया और गाड़ी का इंतजार करने लगे।

गाड़ी रात के दो बजे थी और वे भूख से बेहाल थे। पिता गमछे में बँधा दूसरा आम भी चट कर चुके थे। भूख जब असहनीय हो गई तो वे स्टेशन के बाहर आए और एक इमली के पेड़ पर चढ़कर कुछ नरम-हरी पत्तियाँ तोड़ लाए। इमली की पत्तियों का स्वाद भी इमली की ही तरह लेकिन कुछ कम खट्टापन लिए हुए होता है। पिता ने नरम पत्तियाँ खाईं और फिर भरपेट पानी पिया। उन्हें तात्कालिक तौर पर भूख से राहत मिल गई थी।

गाड़ी रात के दो बजे आई। इस बीच बड़े भाई ने छोटे भाई को टिकट चेकर से बचने के तमाम जरूरी टिप्स दे डाले थे। यह बेहद जरूरी था क्योंकि रात में पकड़ाने और बीच रास्ते में उतार दिए जाने का सीधा अर्थ मौत ही था। इस बार पिता भी चौकन्ने थे। दोनों भाई गाड़ी में सवार हो गए और पूरी सावधानी के साथ रात गुजारी। पिता की आँखों में भय और आशंकाओं की कई-कई कल्पनाएँ आती जाती रहीं।

रात धीरे-धीरे सरक रही थी और उनके हौसले भी बढ़ रहे थे। आखिरकार ट्रेन की खिड़की के बाहर के दृश्यों ने जब अपने रात के काले कपड़े उतार दिए और सुबह का उजला रंग पहन लिया तब उन्होंने राहत की साँस ली। भयानक खतरा टल चुका था, मौत का खतरा बीत चुका था लेकिन पकड़े जाने का भय अब भी बना हुआ था। इसलिए दोनों अब भी सावधान थे।

इस बार उनकी सावधानी पूरी तरह रंग लाई। वे बिना टी.टी.ई. के हत्थे चढ़े सकुशल हावड़ा स्टेशन पर उतर गए। ताऊजी को स्टेशन से बाहर निकलने के तमाम चोर रास्ते मालूम थे। कोलकाता चूँकि एक बड़ी व्यावसायिक नगरी थी और वहाँ उद्योगों का जाल बिछा हुआ था इसलिए आस-पास के बेकारों का स्वाभाविक प्रवाह इस शहर की ओर हुआ करता था। ये लोग बिना टिकट ही कोलकाता पहुँचते थे इसलिए स्टेशन पर खतरनाक नाकेबंदी हुआ करती थी। रेलवे कर्मचारी घात लगाकर बैठे रहते थे और ऐसे लोगों को दबोच लिया करते थे। ठीक उसी तरह जैसे बिल्ली चूहे को दबोचती है और उनकी अंटी में बँधे रुपयों को हड़प जाते थे। ऐसे कर्मचारियों से बचने की कला कई-कई बार पकड़ाने के बाद ही हासिल होती थी!

लूट का भय दोनों भाइयों को नहीं था लेकिन प्रताड़ना का भय तो था ही! वे बचते-बचाते चोर दरवाजों के रास्ते सकुशल स्टेशन से बाहर आ गए।

1946 का कोलकाता... भीड़ और भागमभाग से भरा हुआ। जहाँ देखो वहाँ फटेहाल और पस्त लोग दिखाई पड़ते। ट्राम, मोटर साइकिल, हाथ-रिक्शे गालियाँ देते दौड़ते हुए... लोगों का हुजूम सड़कों पर टूट पड़ा था।सुबह 10-11 का वक्त था। धूप और उमस ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए थे। भूख उन दोनों पर हावी थी लेकिन विस्मय ने पिता को फिलहाल भूख के एहसास से मुक्त रखा था। पिता फटी आँखों से इस गतिमान दृश्य को देख रहे थे। उन्होंने पहली बार इतना विराट और भागता हुआ दृश्य देखा था।

ताऊजी जहाँ रहते थे वह जगह स्टेशन से काफी दूर थी। पुल पार करने के बाद दोनों भाई ट्राम में चढ़ गए। जहाँ उनसे टिकट माँगा जाता, वे वहाँ उतर जाते या उतार दिए जाते, फिर दूसरे ट्राम में चढ़ जाते। पिता को इस खेल में मजा आने लगा क्योंकि इसमें खतरा नहीं था। बार-बार चढ़ने उतरने से उनका जिज्ञासु किशोर मन प्रफुल्लित हो रहा था। उन्होंने न केवल पहली बार ट्राम देखा था, जो उनकी कल्पना तक में भी नहीं था, बल्कि उसमें चढ़ भी रहे थे और कई-कई बार चढ़ रहे थे!

आखिरकार ताऊजी का बासा आ गया और इस खेल का अंत हुआ। वे उतर गए और बासे में पहुँच कर खाने के सामानों पर टूट पड़े। वे खाने के सामानों के साथ वहशियों की तरह का व्यवहार कर रहे थे। जब उदर पर्याप्त मात्रा में भर गया तो उन्होंने पानी पिया। फिर बासे में रहने वाले तमाम लोग उस संकट के बारे में विचार करने लगे जो दाशरथी के छोटे भाई गणेश के रूप में वहाँ पहुँच चुका था।

ताऊजी अपने कई साथियों के साथ कोलकाता में एक छोटा-से किराए के कमरे में रहते थे। ताऊ जी एक बंगाली बाड़ा में भोजन बनाने का काम करते थे। उनके अन्य साथी भी इसी तरह का छोटा-मोटा काम किया करते थे। पिता के लिए रोजगार के रूप में जो पहला विकल्प था वह यही कि उनके लिए भी फौरी तौर पर एक ठीक-ठीक बाड़ा तलाश लिया जाए। ताऊजी के एक साथी की नजर में एक ऐसा बाड़ा था जो भोजन बनाने के लिए किसी ब्राह्मण चाकर की तलाश में था। पिता अभी भी भोजन बनाने जैसे काम के लिए कच्चे थे। वे इस काम के बड़े ही कटु अनुभव से गुजर चुके थे। लेकिन दो व्यक्तियों के लिए भोजन बनाना फिर भी उतना मुश्किल न था जितना कि पंद्रह-बीस व्यक्तियों के लिए भोजन बनाना! बाड़े में इतने लोग तो रहते ही थे, कदाचित इससे भी ज्यादा! स्थिति लेकिन विकट थी, इनकार का प्रश्न ही न था। पिता दूसरी बार फिर पहले वाले रोजगार के अधिक विस्तार के साथ जुड़ गए।

दूसरी बार पिता फिर बुरी तरह असफल रहे। उस बार उन्हें बाड़े में रहने वालों के गुस्से का सामना भी करना पड़ा। एक बार बाड़े में रहने वाले किसी व्यक्ति ने अंडा बनाने को कहा। पिता मांस-मच्छी खाते थे लेकिन मुर्गी और अंडे के प्रति वही भाव रखते थे जो एक वैष्णव आमिष भोजन के प्रति रखता है। पिता ने इनकार कर दिया। एक बार किसी व्यक्ति ने समुद्री केकड़ा बनाने की माँग की। पिता समुद्री केकड़े के स्वाद से परिचित थे, लेकिन बनाना नहीं जानते थे। बाड़े में रहने वाले लोगों का रोष पूरी तरह पिता पर टूट पड़ा।

कोलकाता के हवा-पानी, अत्यधिक परिश्रम, भोजन की अपर्याप्त और मानसिक परेशानी ने पिता को तोड़ दिया। वे गंभीर रूप से बीमार होकर बिस्तरे से लग गए। ताऊजी और उनके साथियों की स्थिति भी इतनी विकट थी कि एक बीमार व्यक्ति को बर्दाश्त करना उनके बूते के बाहर की बात थी। दस-पंद्रह दिनों बाद पिता जब थोड़े ठीक हुए तो उनके पक्ष में यही निर्णय लिया गया कि वे गाँव लौट जाएँ। कोलकाता में निर्वाह उनके बस की बात नहीं है!

पिता मजबूर थे। निर्णय स्वीकारने के लिए बाध्य थे। वे गाड़ी में बैठा दिए गए। इलाज वगैरह में पैसे खर्च हुए थे सो टिकट कटाना संभव नहीं था। हाँ, कुछ पैसे जरूर दे दिए गए थे ताकि भूख लगने पर कुछ खाया-पिया जा सके।

चार महीनों तक जीवन के कटु अनुभव से गुजरने और दूसरों पर आश्रित रहकर जीने की कोशिश में पराजित पिता चुपचाप गाँव लौट गए। पिता को टिकट चेकर से बचने की तमाम हिदायतें दे दी गई थीं। लेकिन अनुभव के कच्चे पिता अगले दिन सुबह-सुबह उड़ीसा के केशपुर स्टेशन में धर लिए गए और उन्हें गाड़ी से उतार दिया गया। गाँव यहाँ से लगभग चालीस किलोमीटर दूर था। पिता ने फैसला कर लिया कि अब पैदल ही चलेंगे।

सफर के समय उन्हें जो पैसे दिए गए थे वे खतम हो चुके थे। उन्हें अब भूख सताने लगी। वे सुबह दस-ग्यारह बजे तक खलीकोट पहुँच गए। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते पैरों ने जवाब दे दिया था। भूख का इंतजाम अब बेहद जरूरी था। खलीकोट में एक भले आदमी ने पिता के ब्राह्मणत्व का मान रखते हुए एक महत्वपूर्ण सूचना दी - मंदिर में भोग लगने वाला है, चाहो तो वहाँ अपनी भूख से राहत पा सकते हो।

मंदिर तो सदियों से ब्राह्मणों के गढ़ रहे हैं उनसे परहेज कैसा? पिता ने तुरंत मंदिर की ओर रुख किया। उस मंदिर में भोजन करने वालों को पहले अपने नाम की पर्ची कटानी होती थी। फिर घंटी बजने के बाद नियत स्थान पर एकत्र होना पड़ता था। पिता ने अपने नाम की पर्ची कटाई और गाँव का नाम बताया। पर्ची काटने वाले आदमी ने कहा - तुम्हारे ही गाँव के पुजारी की माँ यहीं पास में रहती है, तुम वहीं इंतजार करो। जब घंटी बजेगी तब आ जाना।

चार महीनों बाद पिता पहली बार किसी ऐसे व्यति से मिल सकते थे जो गाँव का ताजा हाल सुना सकता था। उनका मन विह्वल हो उठा। उद्विग्न पिता पुजारी माँ के घर पहुँचे और सांकल खटखटाया।

पुजारी माँ बड़ी भली और दयालु महिला थी। द्वार खोलते ही जब पिता को देखा तो आश्चर्य से भर गई। वह बहुत लाड़ से पिता को अंदर ले गई। गाँवों में सूचनाएँ - खबरें छिपती नहीं है, मुँह-मुँह से होते हुए दूर-दूर तक निकल जाती है। पुजारी माँ के पास पिता के भाग जाने की खबर थी। फिर भी उसने वात्सल्य भरी झिड़की के साथ कहा - तू कहाँ चला गया था और इतने दिनों तक रहा कहाँ? तेरे अचानक चले जाने से रो-रोकर तेरी माँ का बुरा हाल हो गया है, बेचारी बीमार पड़ गई है। तेरा पिता भी परेशान है। तुझे तुरंत गाँव जाना चाहिए।

पिता कहना चाहते थे कि फिलहाल गाँव जाने के अलावा कोई चारा भी नहीं है लेकिन चुप रह गए। उन्होंने कहा - मैंने रात से कुछ खाया नहीं है और बहुत भूखा हूँ, कुछ खाने को मिलेगा?

पुजारी माँ बोली - अभी भगवान का भोग नहीं लगा है इसलिए ताजा बना कुछ दे नहीं सकती। हाँ, पखाल भात (बासी भात) है, खाओगे?

उड़ीसा में पखाल भात बड़े चाव से खाया जाता है। बचे चावल को पानी में डुबाकर रखने से उसमें एक सोंधी खटास आ जाती है। यह पानी साँचे का काम करता है जिसे तोड़ानी कहते हैं। चावल के खत्म होने के बाद भी तोड़ानी फेंकी नहीं जाती, उसे मिट्टी की हाँडी या एल्यूमीनियम की डेकची में सहेज कर रखा जाता है। उड़ीसा के गाँवों में आज भी पखाल भात मेहनतकशों और सुबह स्कूल जाने वाले बच्चों का मुख्य भोजन है।

लगभग चार महीने बाद पिता ने हरी मिर्च के साथ भरपेट पखाल खाया। उनका मन पुजारी माँ के प्रति कृतज्ञता से भरा हुआ था। भोजन के बाद वे तुरंत गाँव की ओर निकल पड़े।

पुजारी माँ ने माँ का जिक्र करके सोलह वर्षीय युवक को उद्विग्न कर दिया था। वह उड़कर घर पहुँच जाना चाहता था, लेकिन पैसे नहीं थे, पैदल चलना मजबूरी थी। पेट भरा होने के कारण अभी उनके चाल में तेजी थी, परिणाम यह हुआ कि लगभग छह-सात घंटे में ही पिता बीस-पच्चीस किलोमीटर चल कर एक बड़े गाँव कोदला पहुँच गए।

कोदला पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर आया था। अब आगे चलना मुमकिन नहीं था, सो पिता ने रात उसी गाँव में ही बिताने का निश्चय किया और एक संपन्न घर के बरामदे में पसर गए।

1946 के उड़ीसा में किसी अपरिचित को घर के बरामदे में पसरा देखकर असहिष्णु या शंकालु होने की वृत्ति नहीं थी, सो उस संपन्न घर के गृहस्वामी ने पिता से सामान्य बातचीत शुरू की। बात ही बात में जब उसने पिता के गुजरे चार महीने का संपूर्ण कारुणिक वृतांत जाना तो उसका दिल पसीज चुका। गृहस्वामी चूँकि शूद्र किसान था इसलिए पिता वहाँ भोजन नहीं कर सकते थे. उनका ब्राह्मणत्व उन्हें इसकी अनुमति नहीं देता था। उस गृहस्वामी ने पिता को भूख मिटाने के लिए एक आना दिया। पिता ने आधे पैसे का दोभाजा (एक प्रकार का ग्रामीण मुरमुरा) खाकर अपनी भूख मिटाई और पास के तालाब से पेट भर पानी पीकर बरामदे में लेट गए। आधे पैसे उन्होंने आगामी भूख के लिए बचा लिया था।

पिता ने वह रात अत्यंत बेचैनी में बिताई और बिल्कुल सुबह-सुबह शौच आदि से निपटकर गाँव की ओर चल पड़े। बिन सुस्ताए, लगातार चलते हुए, बचे पैसे से अपनी भूख को मारकर वे दोपहर एक बजे के आसपास अपने गाँव जरड़ पहुँच गए।

गाँव वालों के लिए पिता आश्चर्यजनक घटना नहीं थे। आए दिन युवकों का रोजगार की तलाश में चुपचाप या घोषित रूप से गाँव छोड़ देना, पराई जगहों में रोजी-रोटी से जुड़ जाना या फिर हताश या पराजित होकर गाँव लौट जाना आम बात थी। पिता भी ऐसे ही आम लोगों का हिस्सा थे सो उनका गाँव लौट आना भी कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी। हाँ, इतना जरूर हुआ कि गाँव के मुहाने से लेकर घर की दहलीज तक हर परिचित ने उनका हाल पूछा जो सामान्य औपचारिकता भर थी।

पिता अब घर के भीतर थे। दैनिक कामों में उलझी दादी ने जब पिता को देखा तो उनकी खुशी की सीमा न रही। वह अपने बेटे से लिपट कर रोने लगी। बेटा भी रोने लगा। छोटे भाई-बहनों की स्थिति भी ऐसी ही थी।

पिता लगातार रोए जा रहे थे। उनके इस तरह रोने का एक कारण उनका पराजय-बोध भी था। वे अच्छी तरह जान गए थे कि परदेस से हार कर लौटे हैं।

शाम को जब दादा अपने यजमानों को निपटाकर लौटे, तब पता चला कि उनका मँझला बेटा लौट आया है। यह सुनकर, कहा नहीं जा सकता कि उन्हें खुशी ही हुई होगी। यज्ञमंडल आश्रम का सारा किस्सा उन्हें मालूम हो चुका था इसलिए कोलकाता गया हुआ जानकर उन्होंने राहत की ही साँस ली थी। लेकिन पिता का इस तरह लौट आना उनके लिए एक पहेली ही थी, क्योंकि उनका बड़ा बेटा तो कोलकाता में जम चुका था। दादा ने पिता से कुछ नहीं कहा। वे पिता के चेहरे पर यातना और पीड़ा की लकीरें साफ देख रहे थे।

कोलकाता से लौटने के बाद पिता वही नहीं रह गए थे, जो कोलकाता जाने के पहले थे। एक तो पराजय-बोध और दूसरा महानगर की चकाचौंध, उसकी गति और लोगों को काम करते देखना। उसकी तुलना में गाँव अब बहुत फीका जान पड़ता था। वे अपने छोटे भाई से अक्सर कोलकाता की बातें किया करते, जो अभी कुल चौदह का ही था लेकिन डील-डौल में ऊँचा-पूरा और बलिष्ठ था। पिता कोलकाता की बातें करते हुए उसकी चमक में खो-से जाते और चाचा उनकी आँखों से उस शहर को देखने की कोशिश करते।

गाँव वापिस आने के बाद पिता की परेशानी खत्म नहीं हो गई। भूख और हताशा ने यद्यपि वापसी की यात्रा में कोलकाता को विस्मृत कर दिया था लेकिन गाँव में, दोनों वक्त के भोजन और बेकारी के भाव ने उसे फिर जीवित कर दिया। पिता के भीतर अब कोलकाता फिर से मचलने लगा था। कोलकाता जाने के पहले निर्णय की तह में पलायन-वृत्ति थी लेकिन इस बार कोलकाता के आकर्षण में उसकी चकाचौंध और खुद की बेकारी के भाव घुल-मिल गए थे। पिता अपने भीतर की चमक को अपने सम-वयस्कों में बाँटते फिरते। इसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि पिता के ही रिश्ते के भाई काशी, जो गाँव में ही रहते थे और पिता की तरह ही बेकार थे, कोलकाता चलने के लिए तैयार हो गए। गुपचुप दोनों ने प्रवास की तिथि तय कर ली और बेसब्री से इंतजार करने लगे।

आखिरकार निर्धारित तिथि आ ही गई। पिता और काशी ताऊ, दोनों ने अब तक अपने प्रवास का जिक्र किसी से नहीं किया था लेकिन पिता इस बार पिछली बार की तरह चुपचाप नहीं निकल जाना चाहते थे। निर्धारित तिथि की सुबह, दादा के घर से निकल जाने के पश्चात पिता ने अपनी माता से प्रवास का जिक्र किया। दादी ने हल्का-सा प्रतिवाद किया लेकिन ज्यादा जोर नहीं डाला। वह खुद घर की स्थिति से वाकिफ थी। बल्कि जाने का पक्का निर्णय जान कर दादी ने अपने एक ममेरे भाई से यथासंभव मदद लेने को कहा जो कोलकाता में ही कमार घाटी में रहते थे।

पिता और काशी ताऊ एक बार फिर कोलकाता के लिए निकल पड़े। अपनी पिछली यात्रा के अनुभव को पिता दुहराना नहीं चाहते सो इस बार वे अत्यधिक सतर्क थे। यह उनका अंतिम दाँव था इसलिए किसी भी तरह के संदेह को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहते थे। इस बार उनका साथ उनके रिश्ते के बड़े भाई दे रहे थे. हालाँकि यह उनका प्रथम कोलकाता प्रवास था।

दोनों पैदल चलते हुए तारामंडली पहुँचे, वहाँ राधाकृष्ण मठ में खाना खाया। काशी ताऊ कुछ पूजा-पाठ भी जानते थे। तारामंडली में उनके ही गाँव का एक पुजारी रहता था, उसकी मदद से उन्होंने एक श्राद्ध निपटाया और श्राद्ध में मिले चावल को गमछे में बांध लिया। पाथेय के नाम पर उन दोनों भाइयों के पास यही सामग्री थी, सो भी रास्ते में जुटाई हुई। गाड़ी रंभा से मिल सकती थी। दोनों ने रात बलरामपुर नामक गाँव में बिताई और दूसरे दिन सुबह नौ-दस बजे के आसपास रंभा पहुँच गए।

इन दिनों उड़ीसा के छोटे-छोटे स्टेशनों में मजदूरों के जत्थे आसानी से देखे जा सकते थे। वे एक छोटी-सी पोटली में जरूरी सामान बांधे व्यग्रता से गाड़ी का इंतजार करते रहते थे। अक्सर सभी की मंजिल कोलकाता हुआ करती थी। आय का कोई निर्धारित स्रोत न होने के कारण ऐसे प्रवास उनके लिए अपने जीवन को बचाने का एकमात्र रास्ता था। पिता एक बार फिर और काशी ताऊ पहली बार इस भीड़ का हिस्सा बन गए।

जहाँ निर्णय के साथ कोई विकल्प नहीं होता है, वहाँ हर डर अपने आप ही गायब हो जाता है। कोई भी विकट परिस्थिति इतनी विकट नहीं लगती कि वह आदमी को परास्त कर दे, बशर्ते, कि उस विकट परिस्थिति का नाम मृत्यु न हो! पिता और ताऊ ने इस बार भी टिकट नहीं लिया था। और पिता को इस बार डर भी नहीं लग रहा था। काशी ताऊ लेकिन थोड़ा डरे हुए थे।

कोलकाता-प्रवास की एक अनिवार्य घटना की तरह इस बार भी वे धानमंडल स्टेशन में पकड़े गए और उन्हें उतार दिया गया। पिता और ताऊ चुपचाप उतर गए क्योंकि प्रतिवाद और याचना का अर्थ प्रताड़ना ही होता। पिता बड़ी तेजी से परदेस में जीने के कायदे सीख रहे थे।

कोलकाता जाने वाली अगली गाड़ी रात के दो बजे थे। पिछली बार की तरह इस बार उन्हें स्टेशन में भूखे नहीं रहना पड़ा। पत्थरों को जोड़कर चूल्हा बनाया गया, एक मिट्टी की हाँडी जुगाड़ की गई। सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी कर जलाई गई और काशी ताऊ ने गमछे में बँधा चावल पकाया। दोनों भाई इत्मीनान से खाना खाकर गाड़ी का इंतजार करने लगे।

गाड़ी रात के दो बजे आई। दोनों भाई फिर गाड़ी में सवार हो गए और सुबह संतरागाछी में उतर गए। संतरागाछी में गाँव के मठ के पुजारी का बेटा रहता था जो किसी कंपनी में चौकीदार था। पिता के पास उसका पता था। दोनों भाइयों ने उस दिन वहीं रुकने का फैसला किया। अगले दिन पुजारी के बेटे ने दोनों को दो-दो आने दिए। गाँव-देहात से आए परिचितों की मदद करना, शहर में पुराने जमे हुए लोग अपना कर्तव्य समझते थे ताकि नए आए हुए लोगों को अजनबीयत का एहसास न हो। दोनों भाइयों ने दो-दो आने अपने गमछे में खोंसा और पैदल हावड़ा पुल पार किया।

नदी के ऊपर बने इस विशाल पुल को पैदल पार करना दोनों के लिए किसी रोमांचक अनुभव से कम न था। कोलकाता ऐसे ही रोमांचक और आश्चर्यजनक अनुभवों की नगरी थी इसलिए ग्रामीण युवकों की आकांक्षाएँ इससे जुड़ जाती थीं। आस-पास के राज्यों - आंध्र, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश से हजारों की संख्या में लोग खिंचे चले आते थे। नीचे बहती हुई गंगा और उसे बिना छुए ऊपर से गुजर जाने का सुख वही स्वप्न था, जो पिता अपनी खुली और मुँदी आँखों से देखते रहे थे।

पैदल चलते हुए दोनों सियालदा स्टेशन पहुँचे और लोकल गाड़ी में सवार होकर कमारघाटी पहुँच गए। यह वही जगह थी जहाँ दादी के ममेरे भाई यानी पिता के मामा मदन रथ रहते थे। इतनी बड़ी जगह में मामा को ढूँढ़ना आसान नहीं था। उन्हें न तो पता मालूम था और न ही मामा के काम करने की जगह।

कमारघाटी, घुसुरिया, सियालदा जैसी जगहों में प्रवासी मजदूरों की संख्या सबसे अधिक थी। छोटे-छोटे मुहल्लों में छोटे-छोटे मिट्टी के घर, वहाँ तीन-चार या अधिक लोग मिलकर एक कमरा किराए पर ले लेते और हालात ठीक हो जाने का सपना पाले अपना जीवन झोंक देते। कमारघाटी में एक सिगरेट फैक्टरी थी। पिता को सूचना मिली कि उनके आसपास के गाँव के अनेक लोग वहाँ काम करते हैं। समय इतना विकट था कि संभावना के एक कतरे की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।

पिता और ताऊ ने सूचना का छोर पकड़कर आखिरकार कुछ लोगों को तलाश लिया। लेकिन उन्हें अपने बड़े भाई दाशरथी का पता न चला। वैसे भी पिता के बड़े भाई एक जगह टिककर रहने वाले लोगों में से नहीं थे सो उन्हें खोजना भी व्यर्थ था। पिता इस बार अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर पहुँचे थे सो बड़े भाई पर निर्भर हो जाना उन्हें ठीक भी न लगा।

कोलकाता में उन दिनों काम की कमी नहीं थी इसलिए काम की तलाश में आने वाले हर बेरोजगार को यकीन होता कि वह अपनी मेहनत का वास्ता देकर कोई न कोई काम जरूर ढूँढ़ लेगा। यहाँ पहुँचने वालों में अधिकतर ऐसे लोग हुआ करते थे जिनका जीवन उनके अपने इलाकों में अत्यधिक संकटपूर्ण एवं समस्याग्रस्त था सो यहाँ की तकलीफ झेलना उनकी विवशता थी क्योंकि जीने का कोई और विकल्प उनके पास नहीं था। गरीबी, जिल्लत, बेहतर काम की तलाश और जीवन को थोड़ा ठीक बनाने की उम्मीद में कलकतिया मजदूर किसी तरह अपना जीवन निभाते थे। इसलिए कोलकाता की मजदूर बस्तियों में सैकड़ों की संख्या में लोग रोज ठुंसते चले जाते थे। रोज पहुँचने वाले बेकारों के पास किसी न किसी बस्ती या मुहल्ले का पता होता जहाँ उनका कोई परिचित, दूर या पास का कोई रिश्तेदार रह रहा होता। इस तरह कहने को तो एक कमरा चार या पाँच लोगों द्वारा किराए पर लिया जाता लेकिन रहने वालों की संख्या अक्सर डेढ़ या दोगुनी होती। ऐसी बस्तियों में अक्सर अफवाह उठती कि फलाँ जगह में बड़े पैमाने पर मजदूरों की भर्ती शुरू है और अचानक आश्रित बेरोजगारों का उस जगह की ओर पलायन हो जाता। यह सायास होता या अनायास, यह कहना तो कठिन है लेकिन ऐसी खबरें अचानक जंगल की आग की तरह फैल जातीं। कई बार ये खबरें सच भी होतीं इसलिए ऐसी खबरों की अनदेखी नहीं की जाती थीं।

कमारघाटी में भी ऐसी ही खबर उड़ी - यहाँ से पंद्रह-बीस किलोमीटर दूर घुसुरिया के जूट मिलों में बड़े पैमाने पर मजदूरों की भर्ती शुरू है। पिता और काशी ताऊ के पास सोचने-विचारने के लिए ज्यादा समय नहीं था। यदि तुरंत काम नहीं ढूँढ़ा गया तो अन्य परिचितों की मदद मिलनी भी बंद हो जाएगी, जिसका सीधा अर्थ था भुखमरी या वापसी। जूट मिल में भर्ती की खबर मिलते ही दोनों भाई घुसुरिया के लिए पैदल निकल पड़े।

घुसुरिया पहुँचकर दोनों ने काम की तलाश शुरू कर दी। उस समय काम की तलाश के दो चरण हुआ करते थे। एक, अपने गाँव-देहात के लोगों का पता लगाना और उन्हें अपने लायक काम ढूँढ़ने के लिए कहना और दूसरा, स्वयं ही कारखाने-कारखाने चक्कर लगाकर काम की गुहार करना। दोनों ने दोनों ही तरीकों से काम की तलाश शुरू कर दी। कारखानों में काम की कमी न थी लेकिन उसे पा लेना आसान नहीं था। दूसरे चरण में तो उन्हें कोई सफलता न मिली लेकिन पहले चरण में आंशिक सफलता जरूर मिली। दोनों ने एक ऐसा परिचित तलाश लिया, जिससे उन्हें अप्रत्याशित मदद की उम्मीद थी और मदद मिली भी। वह परिचित स्त्री थी भीमा डोरा की माँ, वह एक जूट मिल में काम करती थी और गाँव में पिता के घर के पास ही रहती थी। पिता को यहाँ उम्मीद बंधती-सी लगी। दोनों भाइयों ने इस आसरे की पनाह ली और पूरी शिद्दत के साथ काम ढूँढ़ने लगे।

पिता और काशी ताऊ को घर से निकले पूरे दस दिन हो गए थे। काशी ताऊ पहली बार घर से निकले थे सो उनके घरवालों को बहुत फिक्र हो रही थी। इसी फिक्र के चलते घरवालों ने उनके बड़े भाई नील को तार कर दिया जो पिछले दो-तीन सालों से कोलकाता में रह रहे थे। नील ने बड़ी सरगर्मी से अपने भाई की तलाश शुरू कर दी।

गाँव से खबर मिल चुकी थी कि वे कमारघाटी जाएँगे सो उन्हें वहीं तलाशा जाने लगा। वहीं परिचितों से पता चला कि वे काम की तलाश में घुसुरिया गए हुए हैं। अत्यंत घनी एवं भागमभाग नगरी होने के बावजूद कोलकाता में किसी को भी ढूँढ़ना आसान था बशर्ते वह व्यक्ति छुपता-छुपाता न फिर रहा हो, उसने अपनी पहचान न छुपा ली हो! पिछले दस दिनों की अनवरत भागमभाग और एक-एक पल जीने के लिए संघर्ष में काशी ताऊ को, कोलकाता-प्रवास के निर्णय के प्रति शंकालु बना दिया था। उन्हें अपना वर्तमान और भविष्य दोनों ही असुरक्षित जान पड़ रहा था। इसलिए जैसे ही बड़े भाई नील ने उन्हें खोज निकाला और गाँव लौट जाने के लिए कहा, वे तुरंत तैयार हो गए। उनका मन वापसी के लिए मचलने भी लगा था। बड़े भाई नील ने वापसी का टिकट कटाकर उन्हें गाड़ी में बैठा दिया।

काशी ताऊ की वापसी ने पिता को अकेला कर दिया था। इन दस दिनों में उनका खूब साथ रहा था। मुश्किल घड़ी और हर पल संघर्ष के बावजूद ये दस दिन बातों ही बातों में बीत गए थे। दोनों के बीच सामंजस्य भी अच्छा हो गया था। एक यदि निर्णय लेता तो दूसरा बिना प्रश्न किए उसे मान लेता। लेकिन काशी ताऊ के लिए कोलकाता-प्रवास, जीवन-मरण का प्रश्न न था। वे तो शहर देखने के आकर्षण में खिंचे चले आए थे। यदि रोजी-रोटी की समस्या हल हो गई तो सोने पे सुहागा अन्यथा वापसी। लौटते हुए उन्होंने वापिस चलने के लिए कहा, लेकिन पिता के लिए लौटना अब नामुमकिन था।

पिता के पास दुखी होने या आँसू बहाने का अवकाश न था। वे दूनी तेजी से काम ढूँढ़ने लगे।

भीमा डोरा की माँ शूद्र थी। ब्राह्मण पिता वहाँ पका भोजन नहीं ग्रहण कर सकते थे, इसलिए उस घर से पिता को रोज चार आने मिला करते थे। यह अलिखित सहायता थी जो, स्थितियाँ यदि ठीक रहीं तो अनिवार्य रूप से वापिस भी की जानी थी। पिता चौदह पैसे का सत्तू और दो पैसे का गुड़ खरीद कर अपनी भूख मिटाते और बाकी पैसे बचा लिया करते थे।

घुसुरिया में पिता तीन दिन रहे। इन तीन दिनों में बहुत कोशिश के बावजूद उन्हें काम नहीं मिला। उनके पास कमारघाटी पहुँचकर अपने मदन मामा को तलाशने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था। उन्होंने फिर कमारघाटी की ओर रुख किया।

चलते हुए भीमा डोरा की माँ ने गोपाल मिस्त्री का पता दिया, जो कमारघाटी में ही रहता था। पिता सीधे उन्हीं के घर पहुँचे। गोपाल मिस्त्री की माँ पिता को देखकर आश्चर्य से भर उठी। वह एक भली और करुणामयी स्त्री थी। उसने देखा कि पिता के चेहरे पर भूख की लपटें दहक रही हैं। चूँकि वह भी शूद्र थी सो पिता के लिए वहाँ का पका अन्न वर्जित था। उसने पिता को आटे का दोसा स्वयं ही बनाकर खाने को कहा।

आटे का दोसा ग्रामीण फास्ट-फूड है। आटे के पतले घोल में शक्कर या गुड़ मिलाकर पेस्ट तैयार करो और गरम तवे पर फैला दो, दोसा बनकर तैयार! पिता ने जल्दी-जल्दी चार दोसा बनाकर खाया। उनके चेहरे पर उठी भूख की लपटें जब बुझ गईं तब उन्होंने अपने आने का सबब बताया। उन लोगों ने विश्वास दिलाया कि वे पिता के लायक कोई काम जरूर ढूँढ़ लेंगे।

जातियों-उपजातियों-वर्णों में विभाजित भारतीय समाज में जातिगत असमानता इतनी स्वाभाविक प्रतीत होती है कि इसका भोक्ता भी इसे अस्वाभाविक मानने से इनकार कर देता है। यह अलग बात है कि सदियों से इसकी क्रूरतापूर्वक तैयारी हुई है। पिता मजदूर बनना चाहते थे लेकिन ब्राह्मणत्व के गर्व से मुक्त नहीं थे और न ही वे शूद्र अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक थे जिन्होंने परदेश में किसी हद तक आर्थिक सुरक्षा प्राप्त कर ली थी। अभिजात्य-केंद्रित आधुनिकता की यह बड़ी फाँक थी। राजनीतिक और सामाजिक चेतना का नितांत अभाव था।

गोपाल मिस्त्री के पिता का नाम वासु था। वे पिता के ही गाँव के रहने वाले थे और घर बनाने का काम करते थे। पिता उनके अपने गाँव के ब्राह्मण थे सो पूज्य भी थे। एक दिन उन्होंने आग्रह किया कि पिता भोजन बनाएँ ताकि वे प्रसाद की तरह उसे ग्रहण कर सकें। पिता उन पर निर्भर थे फिर भी ब्राह्मण देवता थे! पिता ने भोजन बनाया और उन लोगों ने प्रसाद भाव से भोजन ग्रहण किया।

भोजन करते हुए वासु मिस्त्री ने पिता के ब्राह्मणत्व को जगाने की कोशिश की - तुम बांभन की जात हो, इस तरह काम क्यों ढूँढ़ रहे हो? काम तो हम जैसे छोटों के लिए है। एक बार झोली फैलाकर तुम कोलकाता की गलियों में निकलोगे तो इतना चावल मिल जाएगा कि दूसरों को भी खिलाओगे।

काम के तलाश में मिली असफलता ने पिता को हताश कर दिया था। वासु मिस्त्री की समझाइश में पिता की आँखों में अन्न की चमक फैलती गई। उन्होंने ब्राह्मणत्व के इस रास्ते को भी खँगालने का निश्चय किया, जिसे महीनों पहले गाँव में छोड़ आए थे। दूसरे दिन पिता झोली फैलाए भीख माँगने निकल पड़े।

कोलकाता जैसे औद्योगिक और भागते शहर में पिता के ब्राह्मणत्व को आहत होना ही था। पाँच-छह घर के किवाड़ खटखटाने के बाद उन्हें कुछ झिड़कियाँ और पाव भर चावल मिला। उनकी बांभनी मुफ्तखोरी का गर्व चूर-चूर हो गया। उन्होंने स्वयं को धिक्कारा - छिः! मैं मजदूर बनने आया था और मुफ्तखोरों की जमात में शामिल हो गया। यही करना था तो गाँव ही क्या बुरा था?

पिता वापस लौट आए और उन्होंने घोषणा कर दी - मैं अब इस राह नहीं चलूँगा!

पिता ने पुनः मदन मामा को तलाशना शुरू कर दिया और आखिरकार उस कंपनी का पता लगा लिया जहाँ वे काम करते थे। मदन मामा, पिता की अंतिम आस थे। इसी नाम को थामकर वे दूसरी बार कोलकाता पहुँचे थे। पिता कंपनी के गेट पर खड़े हो गए और हर आदमी का चेहरा अपनी नजरों से टटोलने लगे। कंपनी में खाने की छुट्टी हुई तो मजदूरों का रेला गेट से बाहर निकला। पिता अत्यंत सतर्कता से अपनी बेचैन तलाश जारी रखे हुए थे। उनका दिल तेजी से धड़क रहा था - अगर मदन मामा न मिले तो...? इस प्रश्न को वे अपने से दूर ढकेलने की कोशिश करते। लेकिन जितना ही दूर ढकेलते, प्रश्न उतने ही आवेग के साथ उन पर हावी हो जाता। मानसिक जद्दोजहद और बेचैन नजरों की तलाश आखिरकार खत्म हुई। मदन मामा कंपनी के मुख्य दरवाजे से बाहर निकलते दिखे।

पिता भावावेश में दौड़ते हुए मदन मामा के सामने खड़े हो गए। उनके मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे, आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। मामा के लिए भी यह बिल्कुल अप्रत्याशित घटना थी। पिता का इस तरह रोना उन्हें चिंता में भी डाल दिया था। लेकिन वास्तविक कारण जानकार उन्होंने राहत की साँस ली।

मदन मामा अत्यंत आत्मीय व्यक्ति थे। पिता की संघर्ष-गाथा सुनकर वे भी भावुक हो उठे। खाने की छुट्टी का समय खत्म हो रहा था। उन्होंने अपने भानजे को एक होटल से इडली खरीद कर खाने को दिया और कहा कि वह शाम तक कंपनी के गेट पर ही इंतजार करें। शाम को वे घर चलेंगे।

मदन मामा एक अमेरिकी कंपनी में अस्थायी सुरक्षाकर्मी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एशियाई देशों से जो चीजें इकट्ठा हो जातीं, उन्हें जहाजों में लादकर यहाँ लाया जाता। इस कंपनी में उन चीजों को छाँटकर अलग किया जाता, फिर उपयोगितानुसार जहाजों में लादकर यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका और लेटिन अमेरिकी देशों में भेज दिया जाता।

शाम को काम के खत्म होने के बाद मदन मामा, पिता को अपने साथ घर ले गए। वे अपने बड़े भाई तथा छह अन्य लोगों के साथ एक किराए के कमरे में रहते थे। इन आठ लोगों में ब्राह्मण के अलावा तीन शूद्र भी थे। आठ लोग सामूहिक रूप से राशन, लकड़ियाँ और सब्जियाँ लाते, फिर घर का किराया उसमें जोड़कर कुल खर्च के आठ हिस्से करते। इस तरह भोजन और आवास के लिए वहाँ प्रत्येक व्यक्ति को कुल साढ़े तीन रुपए मासिक खर्च करने पड़ते थे। काम का बँटवारा भी जातिगत श्रेष्ठता के आधार पर हुआ था। ब्राह्मणों के जिम्मे केवल भोजन बनाना था और इसके लिए बकायदा पारी बँधी हुई थी। शूद्र, राशन और लकड़ी का इंतजाम, सब्जी लाने और काटने तथा जूठे बर्तन धोने का काम करते थे। इसके लिए उनकी भी पारी बँधी थी। वे इस कमरे के बाहर मजदूर थे, अलग-अलग जगहों में काम करते और जिल्लत सहते। लेकिन कमरे के भीतर ब्राह्मण, श्रेष्ठ और निम्नभाव को बड़ी चतुराई से जीवित रखे हुए थे, इस चतुराई से उन्हें फायदा मिलता था। कौन जाने, केवल इसी फायदे के लिए शूद्रों को साथ रखा जाता हो।

इन आठ लोगों में से यदि किसी का भी मेहमान आ जाता तो दो-तीन दिनों तक सामूहिक रूप से उसका खर्च उठाया जाता। इससे अधिक मेहमानवाजी की उनसे आशा भी नहीं की जा सकती थी। वे स्वयं रईस नहीं थे। हाड़तोड़ मेहनत करके किसी तरह निबाह रहे थे।

वहाँ रहने वाले आठों ही लोगों ने वादा किया कि वे पिता के लिए कोई काम अवश्य तलाश लेंगे। पिता भी सुबह-सुबह काम की तलाश में निकल जाते।

मदन मामा के बड़े भाई कमारघाटी में ही एक जूट मिल में काम करते थे। उन्होंने भी अपने सोलह वर्षीय भांजे के लिए, अपने साथियों के बीच काम की चर्चा चलाई। जूट मिल में काम कर रहे मजदूर साथियों की पत्नियाँ भी किसी न किसी रोजगार से जुड़ी हुई थी। उनमें से अधिकांश तेलुगु स्त्रियाँ मिट्टी खोदने का काम करती थीं। इन स्त्रियों ने आश्वासन दिया कि वे भी पिता के लिए अपने ठेकेदार से बात करेंगी, बशर्ते पिता को आपत्ति न हो।

विकल्पहीन जीवन में शर्त की बंदिशें नहीं होती। वहाँ तो जीवन को बगैर शर्त के जिया जाता है। शर्त का भौतिक और वैचारिक सुख एक भूखे और काम करने को उद्धृत युवक के लिए कोई मायने नहीं रखता। वह तो भयानक तरीके से, ऐसी शर्तों को ऐय्याशियों की जमीन तक मान सकता है! पिता तैयार थे। वहाँ बात जम गई और पिता ने बाकायदा पहला रोजगार हासिल किया। वे कोलकाता में एक ठेकेदार के पास मिट्टी ढोने का काम करने लगे।

कोलकाता... 1946 का उतार... भारत में राजनीतिक सरगर्मियाँ जोरों पर थीं। जल्द ही होने वाले विभाजन ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए थे। आजादी के साथ इस प्रायद्वीप के दो भागों में बँट जाने की स्थिति प्रबल हो गई थी। भविष्य के गर्भ में छटपटाते-अकुलाते दोनों ही संभावित देशों में लोगों का आना-जाना बढ़ गया था। हजारों की संख्या में लोग अपने माल-असबाब की पोटलियाँ सिर पर थामे कोलकाता आते दीख पड़ते थे। ये लोग काम की तलाश में कोलकाता आने वालों से अलग थे। अपने रोते-बिलखते बच्चों, डरी-सहमी स्त्रियों और अनजाने-अचीन्हे भविष्य को अपनी सूनी आँखों से तलाशते हुए ये लोग कोलकाता पहुँच रहे थे। विभाजन के साथ बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोगों के आने की संभावना थी, जिनके लिए तात्कालिक व्यवस्था करना प्रशासन की मजबूरी थी।

प्रशासन द्वारा ऐसे शरणार्थियों की व्यवस्था के लिए निर्णय यह लिया गया कि कोलकाता में बड़े पैमाने पर अस्थायी ही सही लेकिन मकानों का निर्माण हो ताकि शरणार्थियों की समस्या से फौरी तौर पर निपटा जा सके। इसके लिए उजाड़ मैदान में निर्माण कार्य के अलावा उन पोखरों-गड्ढों को भी पाटा जाने लगा जो कभी मछली पालन के लिए उपयोगी हुआ करते थे और अब बेकार थे। कोलकाता और आस-पास के इलाकों में ऐसे सूखे हुए पोखरों की संख्या कम न थी। इन्हीं पोखरों को पाटने के लिए छोटे-छोटे ठेके दिए गए थे। पिता ऐसे ही ठेका लेने वाले एक ठेकेदार के यहाँ एक रुपये आठ आने की रोजी पर मजदूर हो गए।

पिता अभी सोलह साल के पूरे हुए थे, सत्रहवाँ साल शुरू ही हुआ था। उन्हें मजदूरी में लगने वाली ताकत का अंदाजा नहीं था। जातिगत श्रेष्ठता के दंभ ने उन्हें ऐसे कामों से अलग ही रखा था लेकिन जीवन-यापन का कोई दूसरा रास्ता फिलहाल नहीं था। उन्होंने अपने कंधों पर मिट्टी ढोना शुरू कर दिया।

पिता के भीतर एक बेलाग किस्म की मासूमियत थी, जिसके कारण वहाँ काम करने वाली अनुभवी स्त्रियों ने उन्हें आश्वस्त किया कि जब तक पिता के कंधे मजबूत नहीं हो जाते, उनकी मांस-पेशियाँ मेहनत की अभ्यस्त होकर सख्त नहीं हो जाती, वे उनकी मदद करेंगी। अर्थात उनका कुछ बोझ स्वयं उठा लेंगी। इसे मजदूरों की भाषा में किसी लाचार, कमजोर या नौसिखिए मजदूर को बढ़ा लेना कहा जाता था। इन स्त्रियों ने पिता को बढ़ा लिया। काम में टिके रहने के लिए मुनीम को रोजाना एक आना भी देना पड़ता था।

पिता ने जिस ठेकेदार के पास अपने मजदूर जीवन की शुरुआत की, उसका नाम बालाजी मिस्त्री था। उसके पासलगभग अस्सी मजदूर थे जिन पर बकायदा नजर रखी जाती थी ताकि वे कामचोरी न करें और दूसरे ठेकेदार के आदमी उन्हें तोड़ न लें। इस दल में नवयुवकों एवं स्त्रियों की संख्या अधिक थी। पिता भी इस दल में शामिल हो गए और गड्ढे पाटने के लिए उजाड़ इलाकों में चले गए।

गड्ढे पाटने का काम मशीन की तरह चलता था। कोलकाता के बाहर से मिट्टी, मुरुम और पत्थर का मलबा ट्रकों और बैलगाड़ियों पर लाद कर लाया जाता और गड्ढों के आसपास गिरा दिया जाता। फिर फावड़ों की मदद से बाँस की टोकनियों को भरा जाता और उन्हें गड्ढों में उलट दिया जाता। सिर पर मलबा ढोने वाले अक्सर नवयुवक एवं स्त्रियाँ होतीं। यह काम सुबह छह से शाम छह तक चलता। बीच में दो बार आधे-आधे घंटे की छुट्टी होती, जिसमें मजदूर खाना खाते थे। खाने में ज्यादा समय नष्ट न हो इसलिए ठेकेदार काम की जगह के आस-पास ही बाँस के छप्परों से मजदूरों के लिए अस्थायी घर बना देते थे तथा उनके भोजन की सामूहिक व्यवस्था भी कर देते थे। इसके लिए वे एक निश्चित रकम लेते थे लेकिन इस रकम से मुनाफा कमाने की नहीं सोचते थे। इतनी व्यवस्था के बाद उन्हें मजदूरों की मेहनत के ग्यारह घंटे जो मिलते थे।

पिता धीरे-धीरे मजदूरी के अभ्यस्त होने लगे। उन्हें अब बढ़ाने की जरूरत न थी। गाँव छोड़ने के फैसले के बाद अब जाकर उन्हें नगद पैसे मिलने लगे थे। उनका उत्साह बढ़ गया था। लेकिन अभी भी वे गाँव से भागे हुए व्यक्ति थे। काम की तलाश में गाँव से भागा हुआ व्यक्ति जब पैसे कमाकर गाँव भेजने लगे तो उसका भागना उपहास का नहीं, सम्मान का सबब बन जाता है। पिता इस बात को जानते थे इसलिए पैसे बचाने लगे। काम का चक्र भी ऐसा था कि किसी के पास पैसा खर्चने के लिए समय ही नहीं था। शाम छह के बाद लौटते-लौटते उनके जिस्म इतने थक चुके होते कि कोलकाता की चमकीली रंगत उन्हें आकर्षित नहीं कर पाती। इस तरह ग्यारह घंटे की रोजाना मेहनत के बाद मजदूरों के पास बचाने के लिए काफी पैसे होते।

मिट्टी ढोने का काम करते हुए पैंतालीस-पचास दिन बीत चुके थे। इस दौरान पिता पूरे तीस रुपए बचा भी चुके थे। अपनी बचत के तीस रुपए में से पिता ने बीस रुपए गाँव भेज दिए।

पैसे कमाकर घर भेजने का आनंद वही जान सकता है जो बेकारी और विवशता की कठोर यातना से गुजरते हुए अपना घर छोड़ा हो। परदेस से पैसे कमाकर घर भेजना, केवल पैसा भेजना नहीं होता, अपने खोए हुए दर्प को हासिल करने का एक जरिया भी होता है। पिता ने पैसे भेजे लेकिन अपने काम का जिक्र नहीं किया। जिस समाज में हल का मूठ थामने वाले ब्राह्मणों (हलुमा ब्राह्मण या हलधर ब्राह्मण) को कान्यकुब्ज नीची नजर से देखते हों, उन्हें दोयम दर्जे का ब्राह्मण मानकर उनसे रिश्ता नहीं करते हों, उस समाज में मिट्टी उठाने के काम का जिक्र कैसे किया जा सकता था!

पिता पैसे भेजने के सुकून में डूबे हुए थे। पैसे भेजने के महीने भर बाद बड़े भाई दाशरथी उन्हें तलाशते हुए उनके लिखे पते पर पहुँच गए। कोलकाता में पिता ने अपने बूते पर काम ढूँढ़ लिया था, यह उनके लिए कम विस्मयकारी घटना नहीं थी। ताऊजी इस बीच बाड़े का काम छोड़कर एक काँच फैक्टरी में मजदूर हो गए थे और फिलहाल उसे भी छोड़कर पिता के पास पहुँचे थे। काँच की फैक्टरी में काम करते हुए ताऊ जख्मी हो गए थे। उनके हाथ-पैर और चेहरे पर ताजा जख्म अथवा उनके निशान थे। बालाजी मिस्त्री के यहाँ काम करते हुए पिता को अभी तीन ही महीने हुए थे लेकिन अपनी मेहनत और लगन तथा सबसे अधिक, ब्राह्मण होने के कारण वे उनके विश्वस्त हो चुके थे। अतः ताऊजी के भी काम की इच्छा जाहिर करने पर ठेकेदार ने उन्हें भी रख लिया।

ताऊजी जख्मी थे और ऐसे कामों के आदी भी नहीं थे, सो उन्हें भी बढ़ाने की आवश्यकता थी। इस बार यह जिम्मा पिता ने अपने सिर पर लिया। पाँच-छः दिन में ही लेकिन ताऊजी का इस काम से मन उचट गया। उन्होंने ठेकेदार से याचना की कि वह उन्हें कोई छोटी-मोटी मुनीमगिरी दे दे। ठेकेदार के पास काम करने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ चुकी थी और उसे किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो दिहाड़ी मजदूरी में ही लिखा-पढ़ी में मुनीम की मदद कर सके। ताऊजी थोड़ा-पढ़े लिखे थे, हिसाब-किताब भी जानते थे, सो मुनीम की सहायता के लिए रख लिए गए।

पिता और ताऊ ने अब एक अलग कमरा किराए पर ले लिया। संयुक्त आय और सीमित खर्च से उनकी बचत में बढ़ोतरी होने लगी। उनके सिर पर बचत का भूत सवार था सो खर्च में और अधिक कटौती की जाने लगी। अब अधिक पैसे गाँव भेजे जाने लगे।

दोनों भाइयों के एकजुट होकर काम करने और पैसे भेजने के कोई चार-पाँच महीने बाद एक पत्र डाकिए के हाथों पता ढूँढ़ता-ढूँढ़ता ताऊजी और पिता के हाथों पहुँचा। पत्र उनके पिता यानी मेरे दादा का था। पत्र में एक सूचना थी - पिता और ताऊ के भानजे का जनेऊ संस्कार अमुक तिथि को हो रहा है इसलिए उन्हें गाँव पहुँचना है। यह हालाँकि आमंत्रण था लेकिन आदेश की तरह था और इस आदेश में एक क्षीण स्वर की याचना भी थी जिसे परदेस में रहने वाला कमाऊ पूत ही सुन सकता है। वैसे भी जनेऊ संस्कार में मामा की सर्वाधिक भूमिका होती है। इन दोनों भाइयों को जनेऊ संस्कार में शामिल होने के बहाने अपने सम्मान को प्रत्यक्षतः महसूस करने का सुनहरा अवसर भी मिल गया था। उनकी बचत पुराने टीन के डिब्बे से उछलकर दादा की मुट्ठी में बंद होने के लिए बेचैन हो रही थी।

दोनों भाई पहली बार साथ-साथ गाँव लौटने वाले थे इसलिए अतिरिक्त रूप से उत्साहित थे। उन्होंने शहर से कुछ सस्ती लेकिन चमक-दमक और चकित कर देने वाली चीजें खरीदीं। गाँव लौटने के लिए रेलवे कायदों का पालन करते हुए टिकट भी खरीदा और पहली बार सफर का लुत्फ उठाया। इतना सब करने के बावजूद उनके पास चालीस रुपए अब भी बचे थे। जिसे उन्होंने पिता के चरणों में रख दिया।

चालीस रुपए अर्पित करने का तुरत फायदा यह हुआ कि उन्हें सम्मान का प्रमाण-पत्र मिल गया। गाँव में अपनी आय का प्रदर्शन करके जब वे लौट रहे थे तो उनका छोटा भाई पुरुषोत्तम भी उनके साथ था।

यह 1947 का वर्ष था। भारत अभी आजाद नहीं हुआ, लेकिन आजादी के जश्न की तैयारी जोरों पर थी। इन तैयारियों के बीच बहुसंख्यक चेहरे ऐसे थे जो जश्न और आजादी को लेकर उदासीन थे। एक तरफ आजादी के बाद मिलने वाले अवसरों की लूट-खसोट की भयंकर योजनाएँ बन रही थीं तो दूसरी तरफ ये प्रवासी मजदूर अपने शरीर को बेहद थकाते हुए काम में लीन थे। आजादी आई और इन्हें बिना छुए ही आगे बढ़ गई। बल्कि कहना होगा कि आजादी इधर आई ही नहीं। वह तो बड़े-बड़े शहरों के प्रभावी लोगों, छुटभैये राजनीतिज्ञों, जमींदार और कुलीन लोगों की रखैल बन कर संतुष्ट हो गई।

भारत में आजादी केवल उल्लास, उत्सव या उदासीनता के रथ पर सवार होकर नहीं आई थी, एक क्रूर काली परछाई से लिपट कर आई थी। जिसे आज भी छूने पर खून की धारा बहने लगती है। आज भी स्मृति में एक फाँस गड़ी हुई है जो नासूर बन चुकी है और उसका दर्द भीतर-भीतर फैलते हुए दिलो-दिमाग तक पहुँच चुका है।

विभाजन - हाँ यही उसका नाम है। विभाजन के समीकरण-शर्तों के अनुसार बंगाल का एक हिस्सा अलग हो जाने वाला था। विभाजन केवल राजनीतिक यह भौतिक मसला नहीं था, यह एक सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक मसला भी था। इसने धर्म-गौरव, सामूहिक कत्ले आम, लूटपाट और शक्ति प्रदर्शन को जैसे एक जरूरी कार्रवाई बना दिया था। सांस्कृतिक एकता के आदर्श का यदि एक कतरा भी जीवित था तो उसे विभाजन ने प्रश्नांकित बना दिया था। कोलकाता और उसके आस-पास योजनाबद्ध तरीके से लूटपाट होने लगी।

पिता जिस मुहल्ले में रहते थे, वहीं पास में एक मुस्लिम मुहल्ला भी था - सहमा और डरा हुआ। आए दिन वहाँ लूट-पाट की घटनाएँ होती रहतीं। पिता के मुहल्ले से भी लुटेरों की टोली निकलती थी लेकिन ये लोग अक्सर खाली पड़े मकानों के सामान उठाकर घर ले आते और बाद में उन्हें चोर बाजार में बेच देते। एकाध बार तो ऐसी टोली में ताऊजी भी शामिल रहे।

आजादी के बाद भी इन प्रवासी मजदूरों की काम की प्रकृति और रोजी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ये तीनों भाई अपने साथियों के साथ काम में डूबे रहे। काम करके पैसे कमाना, पैसे कमाकर बचत करना और फिर बचत के पैसे गाँव भेज देना, इन सबके बीच कभी-कभी फिल्म भी देख लेना, बस यही उनकी दिनचर्या थी।

वर्ष 1947 बीत गया। 1948 के शुरुआती महीने में ही दुनिया सदी के सबसे करिश्माई व्यक्ति की हत्या की खबर सुनने के लिए अभिशप्त थी। पिता को गांधीजी की हत्या मृत्युपर्यंत याद रही।

30 जनवरी 1948... पिता अपने भाइयों के साथ कंधे और हड्डियों को बेहद थकाते हुए लौटे थे। पूरा शरीर मिट्टियों से सना था। कपड़े बदलकर गमछा पहने हुए वे पानी से अपना शरीर साफ कर रहे थे। जनवरी का अँधेरा धीरे-धीरे बस्तियों में उतर रहा था। समुद्र तटीय इलाकों की ठंड अँधेरे में घुल-मिलकर चुपचाप फैल रही थी कि सूने घर में काँसे की थाली गिरने जैसी झन्नाटेदार आवाज की तरह हवा के सैकड़ों घोड़ों पर सवार होकर यह खबर आई - गांधीजी नहीं रहे, उनकी हत्या कर दी गई है।

खबर ने जिन-जिन इलाकों को छुआ, वहाँ एक खिन्नता, एक अवसादमयी चुप्पी फैल गई। पूरा देश सन्न था मानों बेआवाज साँस ले रहा हो। पिता ने गांधीजी को देखा नहीं था लेकिन उन्हें देखने की तीव्र इच्छा थी। हत्या की खबर ने उन्हें भी अवसाद से भर दिया। करोड़ों चूल्हों की तरह उस रात उनके चूल्हे भी नहीं जले। अनशन-उपवास को हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले और अपने इसी हथियार से पूर्वी भारत में हिंसा के रथ पर विभाजन के बाद अंकुश लगाने वाले गांधीजी के प्रति उस रात लोगों ने उपवास करके अपनी सच्ची श्रद्धांजलि व्यक्त की।

गांधीजी की हत्या के बाद तीन-चार दिनों तक काम बंद रहा। लेकिन जीवन, मृत्यु से ज्यादा शक्तिशाली होता है और जीने के लिए श्रम करना पड़ता है इसलिए गांधीजी की मृत्यु के बाद करोड़ों खिन्न मन धीरे-धीरे अपने कामों में लौटने लगे।

सूखे पोखरों और गड्ढों को पाटने का काम दो वर्षों तक चला। इस बीच पिता दूसरे ठेकेदार के यहाँ काम करने लगे। बालाजी के ठेकेदार के गाँव जाने और कई दिनों तक वापस न आने के कारण उनके मजदूर दूसरे ठेकेदारों के यहाँ काम करने लगे थे। पिता अपने दोनों भाइयों के साथ जिस ठेकेदार का दामन पकड़ा वह गोपाल मिस्त्री था। गोपाल मिस्त्री उनके अपने ही गाँव की श्रमिक जाति से संबंध रखता था। वह अपनी कार्य-कुशलता के बल पर कुछ मजदूरों को जमा करके छोटी-मोटी ठेकेदारी करने लगा था। पिता मजदूरी के लिए उससे जुड़ गए। आजादी के आस-पास की श्रम नीतियों ने बड़े औद्योगिक केंद्रों में इतना काम जरूर किया कि जातियों-उपजातियों के शिकंजे कुछ शिथिल हुए।

नए ठेकेदार के साथ काम का स्वरूप भी थोड़ा बदलने लगा था। दो-तीन वर्षों में अधिकांश गड्ढे पाटे जा चुके थे अब इन पर घर बनाने का काम जोरों पर था। पिता को ईंटें जोड़ना, मिट्टी के पलस्तर लगाना, छप्पर छाना जैसे काम नहीं आते थे। उनके भाइयों का हाल भी यही था सो उन लोगों ने पुनः जूट मिलों में काम तलाशने का निश्चय किया।

आजादी और विभाजन के बाद कोलकाता में भयंकर अफरा-तफरी मची, उसके खौफ से बड़े पैमाने पर मुस्लिम मजदूरों का पलायन हुआ। परिणाम यह हुआ कि कोलकाता के जूट मिलों में मजदूरों की माँग बढ़ गई थी। पिता के मदन मामा भी अस्थायी सुरक्षाकर्मी की नौकरी छोड़ जूट मिलों के कुशल मजदूर बन चुके थे। उनसे फिर संपर्क साधा गया। 1946 की तुलना में 1948के उतार में काम मिलना अपेक्षाकृत आसान था। अंततः पिता और उनके दोनों भाई हनुमान जूट मिल में साढ़े तेरह रुपए साप्ताहिक वेतन पर रख लिए गए।

हर बड़े शहर के औद्योगिक मजदूरों की तरह कोलकाता के औद्योगिक मजदूरों की स्थिति भी अत्यंत हीनतर थी। अधिक काम लेने के उद्देश्य से कठिन शारीरिक श्रम वाली जगहों पर युवा मजदूरों को रखा जाता था। उनकी उम्र पंद्रह-सोलह से लेकर तेईस-चौबीस तक होती थी। इन जूट मिलों में ऐसे युवाओं को प्राथमिकता दी जाती जो काम की तलाश में बाहर से आए हैं और जिनके पास अपने श्रम के अलावा कोई पूँजी नहीं है। कारखानेदारों के एजेंट बराबर ऐसे लोगों की टोह में रहते। आस-पास के इलाकों से ऐसे लोगों का कोलकाता की ओर प्रवाह इतना तेज था कि कारखानेदारों को मजदूरी की कमी का सामना नहीं करना पड़ता था।

घुसुरिया के हनुमान जूट मिल में पिता मजदूर हो गए और उनके बनियान पर एक बिल्ला चिपक गया - 1345। पिता अपने भाइयों के साथ नाम खोकर टोकन में बदल गए थे। उनका परिधान भी बदल गया। मिल में बनियान और लुंगी स्वीकृत परिधान था, जो इस काम में कभी मुस्लिम वर्चस्व का सूचक था। आरंभ में पिता और उनके भाइयों को मशीनों में बंडल डालने का काम मिला - मोटे-मोटे जूट के बंडलों को टोकनी में रखकर सिर पर लादना फिर उन्हें मशीनों में डालना। जूट मिल में जिन अकुशल मजदूरों की भर्ती होती, उन्हें पहले पहल इसी काम में लगाया जाता था। यह मजदूरों के काम और प्रशिक्षण दोनों की जगह एक साथ थी।

सुनने में यह काम आसान लगता है लेकिन इसका सबसे मुश्किल हिस्सा था काम की गति, यानी मशीनों की गति के अनुरूप खुद को ढालना। मिट्टी ढोते हुए गति अधिक मायने नहीं रखती थी। एक मिनट की जगह डेढ़ मिनट हो जाना बहुत चिंताजनक बात न थी, बशर्ते, ठेकेदार या सुपरवाइजर न देख रहा हो। लेकिन मशीन ये रियायत नहीं देते थे। यदि मोटे जूट के बंडलों को मशीनों में डालने में जरा भी देर हुई तो मशीनें रुक जाएँगी। पूँजीपति और उसके कारिंदे मशीनों का एक मिनट भी रुकना बर्दाशत नहीं कर पाते थे।

हनुमान जूट मिल में कुल 4000 लोग काम करते थे। काम के कुल आठ घंटे होते थे और काम पालियों में बँटा होता था। पिता जिस पाली में काम करते थे वह सुबह छह से ग्यारह और दोपहर दो से पाँच का था। बीच में तीन घंटे की छुट्टी मजदूर और मालिक दोनों के लिए फायदे की चीज थी। मजदूर जहाँ आराम पा जाता था वहीं उसके शरीर में आई चुस्ती से मालिकों का मुनाफा बढ़ जाता था।

पिता का जीवन अब व्यवस्थित होने लगा। आरंभ में पिता अपने दोनों भाइयों तथा दो अन्य व्यक्तियों के साथ किराए पर एक कमरा ले लिया। इस कमरे के किराए और भोजन के लिए प्रत्येक व्यक्ति को पाँच रुपए मासिक खर्च करना पड़ता था।

जूट मिल के अधिकांश मजदूर काम खत्म हो जाने के बाद सीधे सिनेमा हॉल पहुँच जाते और दस पैसे का टिकट कटा कर हॉल के अंदर। आठ-साढ़े आठ तक, सिनेमा के छूटने के बाद घर जाते, नहा-धोकर खाना खाते और सो जाते। पिता भी अपने अन्य साथियों के साथ इसी दिनचर्या के आदी हो गए। जीवन के इस क्रम में उन्हें रस मिलने लगा। अपने अन्य साथियों की तरह उन्हें भी कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि उनका औद्योगिक शोषण हो रहा है! लेकिन उन मजदूरों का जीवन आसान नहीं था। कोलकाता में जूट मिलों की संख्या बहुतायत में थी। विस्मृति की सुविधा यानी सिनेमाघरों के मनोरंजन को छोड़ दें तो उनका जीवन कोलकाता के अभिजनों से बिल्कुल अलग थे। ये प्रवासी मजदूर, अपनी जड़ों से कटे थे और अत्यंत त्रासद स्थितियों के बीच किसी तरह अपना निर्वाह कर रहे थे। इन्हीं स्थितियों के कारण पिता के छोटे भाई पुरुषोत्तम पुलिस में भर्ती होने के लिए कटक चले गए। उन्होंने हमेशा के लिए कोलकाता को अलविदा कह दिया लेकिन पिता और उनके बड़े भाई डटे रहे।

पिता जूट मिल में काम करते हुए आरंभिक दो सालों तक बंडल डालने का काम किया फिर हाथकल विभाग में स्थानांतरित कर दिए गए। जूट मिल का यह विभाग सबसे अधिक महत्वपूर्ण था और सबसे अधिक चुस्ती-फुर्ती की माँग करता था। इसमें एक पंक्ति में दस-ग्यारह मशीनें लगी होती थीं, प्रत्येक मशीन पर एक व्यक्ति काम करता था। इन मशीनों से तैयार जूट निकलता था जो दस या ग्यारह छोटी-छोटी घिरनियों में लिपटता रहता था। इन घिरनियों में एक से डेढ़ मिनट के अंदर एक बंडल लायक जूट तैयार हो जाता। फिर आधे मिनट के लिए मशीन को बंद किया जाता। इतने ही समय में नट-बोल्ट खोलकर घिरनियों को निकालना तथा दूसरी घिरनियों को लगाना पड़ता। कई बार जूट के धागे टूट जाते थे तब पैर के अँगूठे से चलती घिरनी को रोककर धागों को जोड़ना पड़ता था।

इस विभाग पर मालिक की नजर सबसे अधिक होती थी, इसलिए इसकी देखरेख के लिए वे धाकड़ इंचार्जों को रखते थे। इन इंचार्जों के हाथों में कपड़े का एक सोंटा होता था। पतले-पतले कपड़े को तीन-चार तह करके तथा उसे सिलकर सोंटा तैयार किया जाता था और उसकी लंबाई डेढ़ से दो फिट तक होती थी। जिस भी मजदूर ने ढिलाई दिखाई उसकी पीठ पर सरदार का सोंटा पड़ता - सड़ाक...। यह ध्वनि हालाँकि एक पीठ से उठती थी लेकिन बाकी मजदूर अपने आप मुस्तैद हो जाते। आदमी लेकिन आदमी ही होता है, वह मशीन की तेजी से मिलान नहीं कर सकता है यदि दोनों में गति की प्रतिस्पर्धा छिड़ी हो तो! इसलिए इस विभाग से हमेशा ही गाली-गलौज और सड़ाक की आवाजें आती रहतीं। इस तरह इस विभाग में काम करने वाले प्रत्येक मजदूर के हिस्से में रोजाना बीस-तीस सोंटे अनिवार्यतः आते थे।

पिता सोंटा खा-खाकर और पैर के अँगूठे से चलती घिरनियों को रोक-रोककर कुशल मजदूर में बदलने लगे। उनकी पीठ और पैर दोनों ही मजबूत होने लगे। आधे मिनट के भीतर पुरानी घिरनियों को निकालकर नई घिरनियाँ लगाने में वे माहिर हो गए।

कारखानेदार काम के घंटों का एक पल भी नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कड़े निर्देश दिए थे। निर्देश का पालन इतनी कड़ाई से होता था कि सप्ताहांत दिए जाने वाले वेतन के लिए भी अवकाश नहीं मिलता। काम के दौरान ही वेतन बाँटने वाला क्लर्क काम की जगह पर ही मजदूरों को तयशुदा वेतन देता और अँगूठा लगवा लेता। मजदूरों की पहचान उनके बिल्लों से होती थी।

काम के दौरान निगरानी करने वाले सरदारों के लिए मजदूर और मशीन में कोई फर्क नहीं होता। लगता कि कुछ मशीन बिजली से और उन पर काम करने वाली, इनसान की तरह दिखने वाली मशीन ऑक्सीजन से चलती है। निगरानी करने वाले लोग भी मजदूर ही थे, ऐसे वरिष्ठ मजदूर, जिनकी पीठ सोंटा खा-खाकर पर्याप्त मजबूत हो चुकी थी। पीठ के मजबूत होते ही कारखानेदार आवश्यकतानुसार उनके हाथों में सोंटा पकड़ा देते।

मानव इकाइयों को निर्धारित नंबरों में बदलने का एक बड़ा फायदा कारखानेदारों को हुआ। हर मजदूर के लिए दूसरा मजदूर केवल एक नंबर था - अपनी समस्त मानवीय पहचानों से कटा हुआ एक नंबर। हालाँकि वर्गबोध का एक व्यापक अभियान छेड़ा जाता तो मजदूरों और उनका नेतृत्व करने वाली शक्तियों को अत्यधिक फायदा मिलता लेकिन अफसोस, कि ऐसे अभियान छिट-पुट ही हुए और कई बार तो केवल एक ही कारखाने या एक ही उद्योग तक सीमित रहे और वह भी केवल आर्थिक माँग को लेकर।

पिता को एक ऐसे ही हड़ताल की याद थी जो कॉ. रबीन मित्रा की कोशिशों के फलस्वरूप उन्हीं के नेतृत्व में हुई थी। कारखाने के भीतर सारे मजदूरों ने सुनियोजित तरीके से इकट्ठे होकर अचानक काम करना बंद कर दिया और हड़ताल शुरू हो गई। उनके लिए बाहर से बोरों में भकर मुरमुरा और चना आता था। ये मजदूर कारखाने के भीतर जीवन की सुरक्षा और वेतन-वृद्धि की माँग को लेकर डटे हुए थे। उधर कारखानेदार भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं था। उसे दूसरे कारखानेदार की मानसिक सहायता मिल रही थी। हड़ताल पूरे बारह दिनों तक चली। मजदूरों की दृढ़ता देखकर मालिक का धैर्य छूट गया। उसने पुलिस और अपने पाले हुए गुंडों द्वारा कारखाने का मुख्य दरवाजा बंद कर मजदूरों की पिटाई शुरू करवा दी। अचानक हुए इस हमले से मजदूरों में भगदड़ मच गई। सैकड़ों की संख्या में मजदूर घायल हुए। अंततः मजदूरों को बिना शर्त काम पर लौटना पड़ा। यह 1953 का वर्ष था।

पिता आजाद भारत में, सोंटा खा कर काम सीखे और अपनी अधिकारों की माँग करते हुए सामूहिक रूप से लाठियाँ खाईं।

मिल के बाहर का कलकतिया जीवन भी सुख और दुख, आशा, उल्लास और हताशा के अनगढ़ भावों से लिथड़ा हुआ घिसट-घिसट कर बीत रहा था। सबसे अधिक मुश्किल बारिश के दिनों में होती थी। जल-निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण मूसलधार बारिश के बाद कोलकाता की सड़कों पर घुटनों और कमर तक पानी भर जाता, ड्रेनेज लाइनें जाम हो जातीं। निचली बस्तियों में मच्छर और दुर्गंध अपना साम्राज्य स्थापित कर लेते। औद्योगिक प्रवासी मजदूरों की संख्या इन्हीं बस्तियों में सबसे अधिक होती थीं। बारिश के दिनों में ये मजदूर पानी को जैसे-तैसे चीरते हुए, अपने मालिकों की आय में कुछ जोड़ने और पीठ पर सोंटे खाने के लिए समय पर पहुँच जाते।

कोलकाता ही भागमभाग, अस्त-व्यस्त और असुरक्षित जीवन के बावजूद निर्धारित रकम गाँव भेजना जारी रहा। पिता अब 24 के हो चुके थे। दादा को उनके विवाह की चिंता सता रही थी। वर्ष 1954में पिता का विवाह कर दिया गया। गुजरे आठ वर्ष की अंधड़, गतिमय और उतार-चढ़ाव वाले जीवन को एक अबोध आत्मीय भाव का सहारा मिल गया। हालाँकि अभी सिर्फ विवाह ही हुआ था, गौना नहीं, लेकिन भविष्य के प्रति पहली बार पिता के भीतर एक जिम्मेदार स्वप्न का उदय हुआ। वर्तमान में आकंठ डूबे हुए पिता केवल अपनी तात्कालिक तकलीफों को विस्मृत करने के लिए ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा के चमकीले रंग में डूब जाते थे। विवाह ने उनसे अब विस्मृति की सुविधा छीन ली थी। असुरक्षित भविष्य ने उन्हें चिंतातुर बना दिया था और इसका मुख्य कारण जूट उद्योग ही था।

1954-55 तक आते-आते भारत के जूट उद्योग की जड़ें हिल गई थीं। एक तो, विभाजन के बाद भारत के पास कुल जूट उत्पादित क्षेत्र का केवल 25 प्रतिशत भाग ही रह गया था और दूसरा, पाकिस्तान, जापान, ब्राजील तथा अन्य दूसरे देशों में जूट का उत्पादन अत्यंत आधुनिक उपकरणों से हो रहा था। भारत का उद्योग इन देशों की तुलना में तकनीकी रूप से काफी पिछड़ा हुआ था। भारत के जूट उद्योग को आधुनिक बनाने के लिए बहुत बड़ी पूँजी की जरूरत थी। यदि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आरंभ भी होती तो लगभग चालीस हजार मजदूरों को अपने काम से हाथ धोना पड़ता। जूट उद्योग पर खतरे के बादल मंडरा रहे थे। 1954 तक आते-आते जूट मिल के मजदूर भी रोजी-रोटी की सुरक्षा के लिए अन्य विकल्पों को तलाश शुरू कर दिया था।

कोलकाता पूर्वी भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक केंद्र था। देश के कोने-कोने में होने वाली औद्योगिक भर्तियों की खबरें यहाँ पहुँचती थी। ऐसी खबरों के पहुँचते ही प्रवासी मजदूरों का बड़ा जत्था संबंधित जगहों की ओर निकल पड़ता। देश के दूसरे हिस्सों में भी अब कोलकाता के प्रति आकर्षण कम होने लगा था। यह वही दौर था जब नेहरु ने औद्योगिक-विकास को राष्ट्रीय विकास का प्रतीक बना दिया था और वे नए-नए औद्योगिक केंद्र खोलने में दिलचस्पी ले रहे थे।

आशा और निराशा, सुरक्षा-असुरक्षा के बीच पिता ने जैसे-तैसे चार वर्ष और काटे। आखिरी दो वर्षों में वे भी निगरानी करने वाले सरदार बना दिए गए और उनके हाथों में भी कपड़े का सोंटा आ गया लेकिन इन दस वर्षों में उनके वेतन में कुल एक रुपए साप्ताहिक, यानी 4 रुपए की मासिक वृद्धि हुई थी।

वर्ष 1958 - कोलकाता ही नहीं, भारत के दूर-दराज के इलाकों में भिलाई इस्पात संयत्र के खुलने और मजदूरों की भर्ती की सूचना पहुँच चुकी थी। पिता के मदन मामा छह महीने पहले ही कोलकाता छोड़कर भिलाई में स्थायी नौकरी पा चुके थे और बड़े भाई दाशरथी भी आर्थिक सुरक्षा के मद्देनजर जबलपुर की ओर निकल गए थे। पिता के लिए कोलकाता में अब कोई आकर्षण न बचा था। आखिर मदन मामा के बुलाए जाने पर पिता ने, बारह वर्ष तक संघर्ष का पाठ पढ़ाने और जिताए रखने वाले कोलकाता को हमेशा के लिए अलविदा कहकर, लोहे को अपनी नसों, हथेलियों और दिमाग में महसूस करने के लिए, एक बार फिर, संभावना भरे धुँधले भविष्य की ओर निकल पड़े। लेकिन इस बार स्थिति थोड़ी भिन्न थी। बारह वर्ष पहले की अबोधता और कच्चापन अब नहीं था। अब पका हुआ सीना और पकी हुई मांसपेशियाँ थीं।

पिता सोलह वर्ष की कच्ची उम्र में मिट्टी ढोए, अठारह वर्ष की उम्र में जूट के धागों से अपना वर्तमान सँवारा और अठाइस वर्ष तक पहुँचते-पहुँचते इतने मजबूत हो गए थे और लौह-उत्पादों से लोहा ले सकते थे।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में बसंत त्रिपाठी की रचनाएँ